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१८० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व विकारों से सम्बद्ध होती है। स्पष्ट ही, द्विवेदीजी जिस प्रकार कविता को परिभाषित करने का प्रयास कर रहे है, वह गीतिकाव्य है, न कि महाकाव्य । महाकाव्य और प्रबन्धकाव्य मे औदात्त्य का सम्यक् निर्वाह होता है और उनके पात्र ही नही, उनमें वर्णित घटनाएँ भी उदात्त हुआ करती है । औदात्त्य के परिपाक के लिए चमत्कार और असाधारण तत्त्वों का सन्निवेश हो जाता है। नायक की असाधारण वीरता, क्षमाशीलता, न्यायप्रियता आदि गुण प्रमाता को चमत्कृत कर डालते है । रोमाण्टिक प्रगीतो, जैसे वर्ड्सवर्थ की कविताओं में, पन्त और निराला के गीतों में उदात्त की जगह साधारण का ही प्राधान्य मिलता है। किन्तु, यह आवश्यक नहीं कि जिस कविता में साधारण लोगों की अवस्था आदि का वर्णन हो, उसका प्रभाव भी साधारण रहे। कभी-कभी चिरपरिचित एवं अति सामान्य प्राकृतिक दृश्यों को देखकर कवि भावविभोर हो उठता है और उसकी लेखनी से कविता की जो रसधार. फूट पड़ती है, उससे. सहृदय पाठक विचलित हो उठता है, रससिक्त हो जाता है। कभी-कभी साधारण तत्त्वों के तालमेल से असाधारण कविता की सर्जना होती है और कभी-कभी साधारण लोगो की कविता असाधारण प्रभाव छोड़ जाती है । उदाहरण के लिए, पन्तजी द्वारा विरचित 'एकतारा', 'ग्रामश्री', 'झझा में नीम' जैसी कविताएँ द्रष्टव्य है। वस्तुतः, प्रकृति के काव्य का कोई भी संकलन इसे प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त होगा कि विषय चाहे साधारण ही क्यों न हो, कवि की प्रतिभा उसमें असाधारणत्व की प्राणप्रतिष्ठा कर देती है। जिस कविता में साधारण साधारण-मात्र रह जाता है और जिसमें उच्च कोटि की कविता की प्रभविष्णुता नहीं रहती, वह असफल रचना होती है। द्विवेदीजी कविता में अनोखेपन के हिमायती थे, इसका अनुमान उनके निबन्धों से. अनायास ही हो जाता है। वे कवि-कर्त्तव्य में इस तथ्य को यह कहकर प्रकाशित करते है कि कवि अपनी कल्पना-शक्ति द्वारा कठिन बातों को अनोखे और सरल ढंग से पाठकों के सामने रखता है । वे नई कविता के उद्भावकों और सर्जकों की तरह उस दुव्हता का समर्थन नही करते, जिसके कारण कविता पहेली बन जाती है । वे शुक्लजी के उन विचारों का समर्थन करते हैं, जो उन्होंने 'कमिग्स' के सम्बन्ध में व्यक्त किये हैं। शुक्लजी कुछ वैसी ही सुबोधता को काव्य की उत्कृष्टता का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निकष बना लेते हैं । निस्सन्देह, उनके विचारो से नये आलोचक ही नही, उनके पाठकों का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग भी असहमत होगा। कविता के पाठक एक तो ऐसे लोग नहीं होते, जिन्हें उसमें रुचि नहीं होती और जिस व्यक्ति में कविता के प्रति प्रेम होता है, उसे मम्भवतः साधारण नहीं कहना ही युक्तियुक्त होगा। वर्तमान युग में देश-विदेश में कविता के पाठकों की संख्या अत्यल्प हो गई है और दिन-प्रतिदिन अल्पात्यल्प होती जा रही है। वस्तुतः, कवि का लक्ष्य अपनी अनुभूतियों के प्रति यथाशक्य ईमानदार रहना चाहिए। इस ईमानदारी के फलस्वरूप यदि उसकी रचना बोधगम्य