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१६६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
बन्धन में नहीं बँध सके । वे न तो भरत, विश्वनाथ आदि की भाँति रसवादी हैं, न भामह आदि की तरह अलकारवादी है, न वामन आदि की भाँति रीतिवादी है, न कुन्तक आदि की तरह वक्रोक्तिवादी है, न आनन्दवद्धन की भॉति ध्वनिवादी है, न जगन्नाथ की तरह चमत्कारवादी है और न ही पश्चिमी समीक्षा-प्रणाली से प्रभावित आलोच्वों की तरह अन्तःसमीक्षावादी। उनकी सैद्धान्तिक समीक्षा में सभी वादों एवं प्रणालियों का सार प्रस्तुत करने की अद्भुत चेष्टा दीख पड़ती है। साथ ही, उन्होने यथासम्भव सरल भाषाशैली में अपने विविध सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण किया है। उनके इन सभी सिद्धान्तों मे भी विशेष उलझाव नहीं दीख पड़ता है। डॉ० प्रभाकर माचवे ने लिखा है : ___"वे हिन्दीवालों को शास्त्रीय जटिलताओं मे उलझाना नहीं चाहते थे। वे साहित्य का सरल, मीधा और सामान्य मार्ग स्थापित करना चाहते थे। उनके काव्य-सम्बन्धी सिद्धान्तो मे निश्चय ही बड़ी सादगी है। इस सादगी के मूल मे व्यावहारिकता तथा यथार्थ की प्रेरणा विशेष रूप से निहित है।"१ । __ इसी कारण, द्विवेदीजी ने भारतीय सिद्धान्तो को भी ग्रहण किया और प्रसंगवश पाश्चात्त्य सिद्धान्तों का भी सहारा लिया। उनके समक्ष भारतेन्दुयुगीन स्थिति नहीं थी,इसी कारण उनके आदर्श भी भारतेन्दयुगीन नही रह सके। नाममात्र की मौलिक चिन्तना देने के अतिरिक्त भारतेन्दुयुगीन काव्यशास्त्रीय चिन्तन अधिकांशतः भारतीय काव्यशास्त्र पर आधृत था। परन्तु, भारतेन्दु-युग मे जिस रीतिकालीन काव्यशिल्प तथा भाषासौष्ठव को कविता का मूल उपादान माना गया था, उसके अनुकूल परिस्थितियाँ द्विवेदी-युग में नही थी। इस कारण, द्विवेदीजी का तत्सम्बन्धी चिन्तन भारतेन्दुयुगीन काव्यशास्त्रीय चिन्तन से अधिक निखरा, गहरा और आगे बढ़ा हुआ है । द्विवेदीजी की सिद्धान्तमूलक आलोचना का उपस्थापन अधोलिखित पुस्तकों में हुआ है :
१. नाट्यशास्त्र (सन् १९११ ई०)। २. रसज्ञरंजन (सन् १९२० ई०)।
३. समालोचना-समुच्चय (सन् १९३० ई०) । इनके अतिरिक्त, अन्यान्य व्यावहारिक या परिचयात्मक आलोचना से सम्बद्ध पुस्तकों में भी यथावसर द्विवेदीजी ने अपनी सैद्धान्तिक समीक्षा की अभिव्यक्ति की है। डॉ० उदयभानु सिंह ने इस सन्दर्भ में लिखा है :
"उनका सिद्धान्त-निरूपण सभी आलोचनाओ में यथास्थान बिखरा हुआ है। इसका कारण यह है कि उन्होने संस्कृत-आचार्यों की भांति सिद्धान्तों को साध्य और लक्ष्य तथा . रचनाओ को साधन न मानकर रचनाओं को ही साध्य और सिद्धान्तो को ही
१. डॉ. प्रभाकर माचवे : 'समीक्षा की समीक्षा', पृ० १८० ।