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________________ १५० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "व वियो के लिए जैसे शब्दों, वृत्तो और स्वाभाविक वर्णनों की आवश्यकता होती है, वैसे ही चित्रकारों के लिए चित्रित वस्तु के स्वाभाविक रंग-रूप की तद्वत् प्रतिकृति निर्मित करने की आवश्यकता होती है। फिर भी, चित्रकार और कवि के लिए ये गुण गौण है । इन दोनो का ही मुख्य गुण तो है भावव्यंजकता । जिसमे भावव्यंजना जितनी ही अधिक होती है, वह अपनी कला का उतना ही अधिक ज्ञाता समझा जाता है ।" १ इस अवतरण द्वारा द्विवेदीजी की तार्किकता तथा गम्भीर विवेचन पद्धति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है । गाम्भीर्य और गूढता का यही वातावरण द्विवेदीजी ने अपने साहित्येतर विषयों पर निर्मित विचारप्रधान निबन्धों मे भी तैयार किया है । यथा : "अपस्मार और विक्षिप्तता मानसिक विकार या रोग है । उनका सम्बन्ध केवल मन और मस्तिष्क से है । प्रतिभा भी एक प्रकार का मनोविकार ही है । इसमें विकारों की परस्पर सलग्नता इतनी है कि प्रतिभा को अपस्मार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक का परिमाण समझ लेना बहुत ही कठिन है ।"२ स्पष्ट ही, इस शैली की भाषा अधिक सरल नहीं है और इसमें गम्भीर भावाभिव्यंजन के कारण कुछ दुरुहता भी आ गई है । द्विवेदीजी की चिन्तनात्मक अथवा विचारात्मक. शैली से सम्पन्न निबन्धों की यही प्रमुख प्रवृत्तियाँ है । विषय और शैली की दृष्टि से बहुविध विस्तृत द्विवेदीजी के निबन्ध - कौशल में सार्वजनिक गद्य एवं विषयबहुलता का प्राधान्य दीख पड़ता है। इन निबन्धो में अधिकांश यद्यपि टिप्पणी की कोटि में परिगणित होने योग्य है, तथापि युगीन सन्दर्भ इनके महत्व से मुँह नही मोड़ा जा सकता । पत्रकारिता, अलोचना, भाषा-सुधार एवं हिन्दी के क्षेत्र विस्तार के समान तत्कालीन समस्याओं के समाधान में लीन रहने के कारण ही द्विवेदीजी अपने निबन्धों के मही और कलात्मक विन्यास की ओर ध्यान नहीं सके। जो व्यक्ति आजीवन औरो की विविध विधागत रचनाओ का रूप निर्माण करता रहा, उसके लिए अपनी निजी कृतियों को कलात्मक निखार देना कोई कठिन कार्य नही था । परन्तु द्विवेदीजी की साहित्य-साधना का प्रमुख उद्देश्य सामयिक समस्याओं का हल ही था, इसलिए वे शुद्ध कलात्मकता को अधिक महत्त्व नही दे सके । युग की आवश्यकताओं की ओर उन्मुख होने के कारण ही द्विवेदीजी ने व्यक्तित्व - अनुप्राणित. निबन्धों की रचना नहीं के बराबर की । डॉ० उदयभानु सिंह ने लिखा है : " द्विवेदीजी की निबन्धकारिता स्वतन्त्र रूप से विकसित नहीं हुई, यह एक सिद्ध तथ्य है । उसे आलोचक, सम्पादक, भाषासुधारक आदि ने समय-समय पर आक्रान्त कर रहा था, अतएव उसका पूर्ण विकास न हो सका । साथ ही, उस युग का पाठक उस १. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'समालोचना -समुच्चय', पृ० ३१ । २. 'सरस्वती', सितम्बर, १९०२ ई०, पृ० २६६
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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