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________________ गद्यशैली: निबन्ध एवं आलोचना ऐसे गद्याशों को देखने से ऐसा लगता है कि द्विवेदीजी केवल मस्तिष्क ही सजग नहीं रखते थे, कभी-कभी हृदय के प्रवाह को बिना रुकावट बहने देते थे। अनेक स्थलों पर. उनको हार्दिक अनुभूतियाँ झलकती है। जहाँ कल्पना का सहारा लेते हुए वर्ण्य विषय के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं, वहाँ उनका गद्य अलंकृत एवं काव्यात्मक हो गया है। यथा : ____ "कविता-कामिनी कमकमनीय नगर में कालिदास का मेघदूत एक ऐसे भव्य भवन के सदृश है, जिसमें पथ-रूपी अनमोल रत्न जड़े हुए हैं-ऐसे रत्न जिनका मोल ताजमहल में लगे हुए रत्नों से भी कहीं अधिक है। ईट और पत्थर की इमारत पर जल का असर पड़ता है, आँधी-नुफान से उसे हानि पहुँचती है, बिजली गिरने से वह नष्ट-भ्रष्ट हो सकती है,पर इस अलौकिक भवन पर इनमे से किसी का कुछ भी जोर नहीं चलता।" द्विवेदीजी के भाव-प्रधान निबन्ध छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा परस्पर गुम्फित है। इनमे शब्द और वाक्य चंचल शिशुओं की भाँति एक-दूसरे को ढकेलते हुए आगे बढ़ते है। इनकी भाषा में अँगरेजी, उर्दू आदि के शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर मिलता है। कुल मिलाकर, शैली की दृष्टि से द्विवेदीजी के भावात्मक निबन्ध अपने-आप में गद्यकाव्य जैसे सौन्दर्य एवं माधुर्य का वहन करते हैं। शैली की दृष्टि से द्विवेदीजी के निबन्धों का तीसरा भेद चिन्तनात्मक अथवा विचारात्मक है। व्याख्यात्मक, आलोचनात्मक एवं तार्किक शैली के सभी गुणों का संवहन करनेवाली इस शैली के निबन्धों का द्विवेदीजी के निबन्ध-साहित्य मे अपना विशिष्ट स्थान है । ऐसे निबन्ध उनके पूर्व बहुत कम लिखे गये थे। इस कोटि के निबन्धों के उपयुक्त गम्भीर एवं ताकिक वातावरण द्विवेदीजी ने निर्मित किया, जिसकी भित्ति पर परवर्ती काल में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ज्ञान-गम्भीर और तर्क-कर्कश निबन्धों की रचना की। विविध साहित्य एवं साहित्येतर विषयों का गम्भीर अध्ययन और मनन करके द्विवेदीजी ने उनका प्रस्तुतीकरण विचारात्मक अथवा चिन्तनप्रधान शैली मे किया। उनकी इस शैली के निबन्ध 'साहित्य-सीकर', 'साहित्य-सन्दर्भ', 'रसज्ञरंजन', 'समालोचना-समुच्चय', 'लेखांजलि', 'आलोचनांजलि' आदि पुस्तकों में सकलित है। अँगरेजी के निबन्धकार फ्रांसिस बेकन' के ३६ निबन्धों का 'बेकन-विचार-रत्नावली' के रूप में अनुवाद भी उन्होंने इसी शैली में किया था। साहित्य, मनोविज्ञान, अध्यात्म आदि विषयो पर लिखे गए उनके निबन्धों की शैली यही है । इस शैली में उन्होंने विशुद्ध खड़ी बोली का प्रयोग ही किया है, उर्दू के तद्भव शब्दों तक का नहीं के बराबर प्रयोग किया है। इस शैली में किंचित क्लिष्टता भी परिलक्षित होती है। इस शैली में यह क्लिष्टता भाषाजन्य ही है। द्विवेदीजी की प्रस्तुत पंक्तियों पर दृष्टिपात कर उनकी निबन्धगत चिन्तनात्मक शैली का परिचय पाया जा सकता है : १. 'साहित्य-सन्देश', अस्टूबर, १९६४, ई०, पृ० १५९ पर उद्धत ।।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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