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१४६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्त्तन्व में मिलती है, परन्तु उनके कुछ निबन्धों का सारा परिवेश ही कथात्मक है। वस्तु के सुगटित विन्यास तथा चरित्राकन आदि के अभाव मे इन्हे कथा की सज्ञा नहीं दी जा सकती है। इन्हें कथात्मक वर्णन-शैली का निबन्ध ही कहा जा सकता है । 'अद्भुत इन्द्रजाल', 'व्योम-विहरण' 'हस का दुस्तर दूतकार्य'3 जैसे निबन्ध इसी कोटि के हैं। द्ववेदीजी के कथात्मक वर्णनप्रधान निबन्धों की भाषा भी बड़ी सरल है। एक अवतरण उनके नल का दुस्तर दूतकार्य' शीर्षक निवन्ध से उदाहरणस्वरूप द्रष्टव्य है : ____ "नल एक दिन मृगया के लिए राजधानी से बाहर निकला । आखेट करते-करते वह अकेला दूर तक अरण्य में निकल गया। वहाँ उसने एक बड़ा मनोहर जलाशय देखा। उसके तट पर एक अलौकिक रूप-रंगधारी हस थक जाने के कारण आँखें बन्द किये बैठा आराम कर रहा था । नल की दृष्टि उसपर पड़ी। चुपचाप दबे पैरों जाकर राजा ने उसे पकड़ लिया।"४
सरल भाषा, वर्णनात्मकता और कथा-प्रवाह के आधार पर ही द्विवेदीजी के इस कोटि के निबन्धों को कथात्मक निबन्ध कहा गया है । इस शैली से मिलता-जुलता उनके निबन्धों का एक अन्य रूप आत्मकथात्मक भी है। कई विद्वानों ने द्विवेदीजी के सम्पूर्ण निबन्ध-साहित्य में मात्र इसी कोटि के निबन्धो को व्यक्तिपरक आत्मीय गुणों से किंचित् सम्पन्न माना है। यथा श्रीहसकुमार तिवारी ने लिखा है :
" 'दण्डदेव का आत्माभिमान' आदि कुछ गिनी-चुनी रचनाएँ है, जिनमें रोचकता, स्वतन्त्र भावना और आत्मीयता का स्पर्श है, लेकिन नाममात्र का।"५
'दण्डदेव का आत्माभिमान',६ 'मेरी जीवनरेखा' ७ प्रभृति कतिपय आत्मकथात्मक निबन्धों में संक्षिप्त चरित का उल्लेख मिलता है । चरित-वर्णन की दृष्टि से द्विवेदीजी के निबन्धों की वर्णनात्मक शैली का एक अन्य प्रभेद उनके चरितात्मक निबन्धों का ही है । 'प्राचीन पण्डित और कवि', 'विदेशी विद्वान्', 'चरित-चर्या, 'चरित्र-चित्रण' आदि
१. 'सरस्वती' जनवरी, १९०६ ई०, पृ० २६-३१। २. 'सरस्वती', अगस्त, १९०५ ई०, पृ० ३१५-३१८ । ३. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० ९८-१२६ । ४. उपरिवत्, पृ० ७८ । ५. डॉ० लक्ष्मीनारायण सुधांशु : 'हिन्दी-साहित्य का बृहत् इतिहास', भाग १३,
पृ० १०२। ६. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'लेखांजलि' में संकलित । ७. सन् १९३३ ई० में नागरी-प्रचारिणी सभा के अभिनन्दन-समारोह का
आत्मनिवेदन।