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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १३५
२६. विचार-सिमर्श (सन् १९३० ई० ) २७. संकलन (सन् १९३१ ई०) २८. चरित्र-चित्रण (सन् १९३४ ई० ) २९. (सन् १९३५ ई० )
इन विविध विषयों के मौलिक निबन्धों के संकलनों के साथ-ही-साथ द्विवेजी ने अँगरेजी के निबन्धकार फ्रांसिस बेकन के ३६ निबन्धो का अनुवाद ' बेकन - विचार - रत्नावली, (सन् १९०१ ई० ) में प्रस्तुत किया है ।
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आचार्य द्विवेदीजी के निबन्धों के सभी संकलनों में विषयों का आश्चर्यजनक afar दीख पड़ता है । इतने अधिक विषयों पर एक ही समय में लेखनी दौड़ानेवाला freधकार हिन्दी में दूसरा नही हुआ । हिन्दी साहित्य को समृद्ध करना ही इस प्रसंग में उनका लक्ष्य रहा । डॉ० ओंकारनाथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है :
" निबन्ध रचना के मूल में द्विवेदीजी की एकाधिक विचार दृष्टियाँ रही हैं । सबसे प्रमुख दृष्टि है - हिन्दी के ज्ञान- भाण्डार को समृद्ध करना । ... द्विवेदीजी ने स्वदेशी और विदेशी भाषाओं से, विशेषकर प्राचीन संस्कृत परिपाटी से ज्ञान के विविध तथ्यों का आकलन किया । इसे हम संग्रहात्मक दृष्टि कह सकते है ।" "
इस संग्रहात्मक दृष्टि ने द्विवेदीजी के निबन्धों को कई नये पुराने विषयो से सम्पन्न कर दिया है । विविधता के कारण उनके निबन्धों के विषय की दृष्टि से अनेक विभाजन हो सकते हैं; जैसे साहित्यिक, चरित्रप्रधान, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्व विषयक, आध्यात्मिक आदि । द्विवेदीजी के निबन्ध-संकलनों में इन सभी विषयों का अलग-अलग अथवा मिश्रित समाहार मिलता है ।
(क) साहित्यिक निबन्ध : इस कोटि में द्विवेदीजी के उन सभी निबन्धों की गणना की जा सकती है, जिनमें हिन्दी-भाषा, उसके साहित्य एवं साहित्यकारों की साहित्यिक विवेचना मिलती है । ऐसे निबन्धों को भी पुस्तक-समीक्षा, टिप्पणी, शास्त्रीय विवेचन, कवि-लेखक-परिचय इत्यादि अनेक उपभेदों में विभक्त किया जा सकता है। 'प्राचीन कवि और पण्डित', 'कालिदास और उनकी कविता', ‘रसज्ञरजन', 'सुकवि-संकीर्तन', 'कोविद-कीर्त्तन', 'आलोचनांजलि', 'साहित्य-सन्दर्भ', 'साहित्यालाप', 'वाग्विलास' 'समालोचना - समुच्चब' जैसे निबन्धों के संग्रहों में संकलित सभी निबन्ध साहित्यिक ही । कतिपय अन्य संकलनों में भी ऐसे निबन्ध मिलते हैं । आचार्य द्विवेदीजी के साहित्यिक निबन्ध उनके गहन अध्ययन, मनन एवं चिन्तन के फल हैं । ऐसे अधिकांश निबन्धों की शैली विवेचनात्मक एवं समीक्षात्मक है । तत्कालीन साहित्यिक पृष्ठभूमि में आचार्य महोदय के इन निबन्धों का अपना विशिष्ट महत्त्व है ।
१. डॉ० ओंकारनाथ शर्मा : 'हन्दी - निबन्ध का विकास', पृ० १५० ।