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सम्पादन- कला एवं भाषा सुधार [ १०३
परन्तु, द्विवेदीजी की संशोधन - नीति ने ही हिन्दी के साहित्यिक विकास को एक निश्चित गति दी है । यदि वे इस नीति का कठोरता से पालन न करते, तो आज हिन्दी का साहित्यिक इतिहास कुछ और ही होता । जिन रचनाओं को वे संशोधन के द्वारा भी स्तरीय बनने की सम्भावना से परे पाते थे, उन्हे वे शीघ्र ही अस्वीकृत कर लौटा देते थे । परन्तु, अस्वीकृति की यह सूचना भी वे वैसे शब्दों में देते थे कि लेखक को हतोत्साह न होना पड़े, अपितु उनके अस्वीकृतिपरक पत्तों को पढ़कर लेखकों को और रचनाओ के सर्जन की प्रेरणा मिलती थी ।
स्पष्ट है कि आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने विविध विषयों की विशाल सामग्री से हिन्दी साहित्य का भाण्डार भरने के उद्देश्य से न केवल अपनी लेखनी को अविरल गति से चलाया था, अपितु उन्होंने हिन्दी - जगत् को नये कवियों एवं लेखकों का एक समूह भी प्रदान किया । उनकी 'सरस्वती' के माध्यम से परवर्ती काल में हिन्दी साहित्य में ख्याति पानेवाले अधिकांश महारथी प्रकाश में आये । श्रीरामदास गौड़ ने ठीक ही लिखा है :
" 'सरस्वती' की पुरानी फाइलें उठाकर देखिए- माहित्य विज्ञान, दर्शन, इतिहास, संगीत, चित्रकला, नीति, कोई शास्त्र छूटा नहीं। सभी विषयों पर अच्छे से अच्छे गम्भीर और गवेषणापूर्ण लेख हैं और इनमें से अनेक या तो स्वयं पण्डितजी की कलम से है अथवा उनसे प्रभावित लेखकों की कलम से । इस चलते-फिरते प्रचारित विश्वविद्यालय मे लाखों पाठकों ने घर बैठे शिक्षा पाई और पण्डित, सुलेखक और कवि हो गये ।" " भाषा सुधार :
आचार्य द्विवेदीजी की अन्यान्य समस्त उपलब्धियों की तुलना में भाषा सुधारसम्बन्धी उनके द्वारा किया गया कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक है । हम उनकी प्रतिभा के स्पर्श के बिना हिन्दी भाषा के वर्तमान रूप की कल्पना ही नहीं कर सकते । भाषा सुधार सम्बन्धी उनकी उपलब्धियों की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुए श्रीजगन्नाथप्रसाद शर्मा ने लिखा है :
" पूर्वकाल में भाषा की जो साधारण शिथिलता थी अथवा व्याकरण-सम्बन्धी जो निर्बलता थी, उसका परिहार द्विवेदीजी के मत्थे पड़ा । अभी तक जो जैसा चाहता था, लिखता रहा । कोई उसकी आलोचना करनेवाला न था । अतएव, इन लेखकों की 'दृष्टि भी अपनी त्रुटियों की ओर नहीं गई थी । द्विवेदीजी ऐसे सतर्क लेखक इसकी अवहेलना न कर सके, अतएव इन्होंने उन लेखकों की रचना -शैली की आलोचना प्रारम्भ की, जो व्याकरण-गत दोषों का विचार अपनी रचनाओं में नहीं करते थे । " २
द्विवेदी
१. श्रीरामदास गौड़ : हिन्दी-साहित्य पर द्विवेदीजी का प्रभाव', अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ५५ ।
२. श्रीजगन्नाथप्रसाद शर्मा : 'हिन्दी की गद्यशैली का विकास', पृ० ७३ ।