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सम्पादन-कास एवं भाषा-सुधार [ ९५ "पश्चिमी देशो ने अपने मासिक साहित्य का बँटवारा कर लिया है। स्वास्थ्य, खेल-कूद, व्यायाम, राजनीति आदि कितने ही विषय ऐसे है, जिनके सम्बन्ध में अलगअलग पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती है। इसलिए बहुत सुभीता होता है। पाठक अपनी रूचि के अनुकूल अपने इच्छित विषय के पत्र देते और पढ़ते हैं।"१ ।
लेकिन, मन १९०३ ई० के आसपास हिन्दी-जगत् इतना समृद्ध नहीं था कि विविध विषयो पर अलग-अलग पत्रिकाएँ रहती। आज भी सभी विपयों पर हिन्दी में पत्रिकाएं नहीं प्रकाशित होती है। द्विवेदीजी पाठकों रुचि की विविधता से परिचित थे। अतः, 'सरस्वती' के माध्यम से वे विविध विषयों की सामग्री देने का प्रगम करते थे। 'विविध विषय' स्तम्भ वे स्वयं लिखा करते थे, जिसके अन्तर्गत विभिन्न विषयों से सम्बद्ध छोटी-छोटी सूचनात्मक टिप्पणियाँ रहती थी। 'सरस्वती' के इस स्तम्भ द्वारा वे हिन्दी-पाठकों को सकुचित दायरे से निकालकर एक विस्तृत भूमि पर खड़ा करना चाहते थे। इस प्रकार की विविधविषयक मामग्री के लेखन की दिशा मे प्रवृत्त होने के लिए द्विवेदीजी तत्कालीन साहित्यकारो से अनुरोध भी करते रहते थे। 'ग्रन्थकारों से विनय' नामक कविता में उन्होने हिन्दी में सत्काव्य, इतिहास, विज्ञान आदि की रचना की ओर लेखकों का ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है :
सत्काव्य तथा इतिहास और विज्ञान सत्पुरुषों के भी चरित विचित्र-विधान लिखिए है लेखन-कला कुशलतावान
इसमें ही है सब भॉति देश कल्याण' परन्तु, प्रारम्भ मे हिन्दी का लेखक-समूह नये-नये विषयो पर कम उठाने के लिए तैयार नहीं था। अत., इन विषयो पर द्विवेदीजी ने स्वय लेखनी चलाई। मनोनकल विषयों पर रचनाओ की उपलब्धि के अभाव में 'सरस्वती' के प्रारम्भिक वर्षों में तो अधिकाश रचनाएँ स्वयं द्विवेदीजी ने ही लिखी है। इस कथन की पुष्टि में सन १९०३ ई० की 'सरस्वती' मे छपी विभिन्न विषयों की रचनाओ की प्रस्तुत सूची को देखा जा सकता है : विषय कुल रचनाएँ
अन्यों की द्विवेदीली की अद्भुत आख्यायिका
१. द्विवेदी-पत्रावली, पृ० १९०-१९१ । २. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'ग्रन्थकारों से विनय', 'सरस्वती', सन
१९०५ ई०, पृ० ५३ ।