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सम्पादन कला एवं भाषा-सुधार [ ९३ आदि साहित्य के यावतीय विषयों का यथावत् समावेश रहेगा और आगत ग्रन्थादिकों की यथोचित समालोचना की जायगी । "
लेकिन, इस घोषणा का समुचित परिपालन पत्रिका के प्रारम्भिक वर्ष में तो एकदम नहीं हो सका । प्रथम वर्ष में 'सरस्वती' के अन्तर्गत उपन्यास, नाटक, विज्ञान आदि के नाम पर बहुत कम ही सामग्री जा सकी । दूसरे वर्ष से जब बाबू श्यामसुन्दरदास के कर्मठ कन्धों पर 'सरस्वती' - सम्पादन का भार आया, तब इसमें विषयों की विविधता कुछ बढ़ी। इस अवधि के अंकों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जीवनचरित्र लिखने की ओर प्रवृत्ति इस समय अधिक रही । परन्तु, 'सरस्वती' का सम्पादन सन् १९०३ ई० में अपने हाथ में आते ही द्विवेदीजी ने 'नरम्बनी' के कलेवर और मज्जा में पर्याप्त परिवर्तन किये और उसे विविध विषयों की ओर मोड़कर उनके आकर्षण में चार चाँद लगा दिया । उनके आने के पहले 'सरस्वती' की हालत कुछ अच्छी नहीं थी और उसके ग्राहकों की संख्याभी घटती जा रही थी । द्विवेदीजी ने वढलती हुई सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसमें विविध प्रकार की सामग्री प्रस्तुत कर पाठकों का ध्यान उसकी ओर खींचा एवं स्थिति को सुधार लिया । द्विवेदीजी के समक्ष तत्कालीन हिन्दीत्रों की दुर्दशा थी और वे समय-समय उनकी दशा पर दुःख भी प्रकट करते रहते थे । 'सरस्वती' (नवम्बर, १९१३ ई०) नें उन्होंने लिखा था :
"हिन्दी पत्र देखने से कभी-कभी यह शंका होती है कि क्या इनके सचालक अठारहवीं सदी के हैं अथवा क्या ये किसी अँगरेजी-पत्र को भूल से भी उठाकर नहीं पढ़ते और देखते कि उनमें कैसे कैसे लेख रहते हैं और उनका सम्पादन किस ढंग से होता है ? जो खबरें रेजी, उई और मुख्य-मुख्य हिन्दी पत्रों में निकल जाती है, वही बहुत पुरानी हो जाने पर भी किमी- किसी पत्र में निकली देख दुख होता है । कभी-कभी तो छ -छः महीने, वर्ष वर्ष की पुरानी स्त्रीवें टुकडे टुकड़े करके छानी जाती हैं। अपने नगर और प्रान्त की की खबरें न छानकर सुवन और विकी बानी बातें प्रकाशित की जाती हैं । ग्राहकों की रुचि और लाभ का कुछ भी खान न करके निसार और अरुचिकर बातें भर दी जाती हैं । " २
हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की इस शोचनीय अवस्था को देखते हुए उन्होंने 'सरस्वती' को इन समस्त त्रुटियों से मुक्त एवं विविध विषयों की नवीनतम सामग्री से युक्त करने का संकल्प लिया । वे सम्पादक के लिए देश-विदेश की विभिन्न सामयिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों का ज्ञान रखना अनिवार्य कर्म मानते थे । उन्होंने स्वयं 'सरस्वती'
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१. 'सरस्वती', भाग १, आरम्भिक भूमिका ।
२. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श, पृ० १४-१५ ।