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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र थी। उसमें प्रभूत उत्साह, सब तरह के पुण्य-लक्षण, इच्छानुसार रूप धारण करने की क्षमता, अवधिज्ञान, सब तरह के विज्ञान में पारङ्गतता, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ निर्दोषता,
और अचिन्त्य वैभव प्रभृति सब गुण और सुलक्षण थे। वह ललिताङ्ग जैसे नामको सार्थक करने वाला देव हुआ। दोनों पाँवों में रत्नमय कड़े, कमर में कर्द्धनी, हाथों में कंगन, भुजाओंमें भुजबन्द, छाती पर हार, कानों में कुण्डल, सिर पर फूलों की माला एवं किरीट वगैरः आभूषण, दिव्य वस्त्र और सारे शरीर का भूषण रूप यौवन-ये सब उसके पैदा होनेके समय, उसके साथ ही प्राप्त हुए थे; अर्थात् वह उपरोक्त गहने, कपड़े और जवानी को साथ लेकर जन्मा था। उसके जन्म-समय में, अपनी प्रतिध्वनि से दिशाओं को प्रतिध्वनित करनेवाली दुदुभियाँ बजीं और 'जगत् को सुखी करो एव जयलाभ करो' ऐसे शब्द मङ्गल-पाठक कहने लगे। गीत और वाद्य के निर्घोष-गाने बजाने की आवाज़ों तथा बन्दिजनों के कोलाहल से व्याकुल वह विमान अपने स्वामी के आने की खुशी में गरजता हुआ सा मालूम होने लगा। सोकर उठे हुए मनुष्य की तरह उठकर
और सामने का दिखावा देखकर, ललिताङ्ग देव इस प्रकार विचार करने लगाः-'यह इन्द्रजाल है ? स्वप्न है ? माया है ? क्या है ? ये नाच और गान मेरे उद्देश से क्यों हो रहे हैं ? ये विनीत लोग मुझे अपना स्वामी बनाने के लिये क्यों छटपटा रहे हैं ? इस, लक्ष्मी के मन्दिर रूप, आनन्द-सदन-स्वरूप, सेव्य, प्रिय