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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पत्रे
नास्तिक मत-खण्डन ।
संभिन्नमति मंत्री की ऐसी बातें सुनकर, स्वयंबुद्ध बोला"अरे ! अपने और पराये शत्रु -रूप नास्तिकों-धर्माधर्म और ईश्वर कोन मानने वालों-को धिक्कार है ! क्योंकि वे जिस तरह अन्धा अन्धे को खींचकर खड्डु में गिराते हैं, उसी तरह मनुष्यों को खींचकर-अपनी लच्छे दार बातों में उलझाकर-अधोगति में गिराते हैं। जिस तरह सुख-दुःख स्वसंवेदना से जाने जा सकते हैं; उसी तरह आत्मा भी स्वसंवेदना से जानने योग्य है । उस स्वसंवेदना में बाधा का अभाव होनेके कारण, आत्मा का निषेध कोई भी नहीं कर सकता। 'मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ-ऐसी अबाधित प्रतीति आत्मा के सिवा और किसी को भी नहीं हो सकती ; अर्थात् सुख और दुःख का अनुभव आत्मा के सिवा और किसी भी पदार्थ को हो नहीं सकता। एकमात्र आत्मा में ही दुःख-सुख के अनुभव करने की शक्ति है। इस तरह के ज्ञानसे, जिस तरह अपने शरीर में आत्मा का होना सिद्ध होता है; उसी तरह, अनुमान से, पराये शरीर में भी आत्मा का होना सिद्ध हो सकता है। सर्वत्र, बुद्धि-पूर्वक, क्रिया की प्राप्ति देखनेले, इस बात का निश्चय होता है कि, पराये शरीर में भी आत्मा है। जो मरता है, वही फिर जन्म लेता है, इससे इस बात के मानने में कोई संशय नहीं रह जाता, कि चेतन कापरलोक भी है। जिस तरह चेतन बालक से जवान और और जवान से बूढ़ा