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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पव
हुआ वह दूत जब विनीता नगरीके बाहर निकल आया, तब ऐसा मालूम पड़ने लगा, मानों वह भरतपतिकी शरीरधारिणी आज्ञा ही हो। मार्गमें जाते-जाते उसका बायाँ नेत्र फड़कने लगा, मानों कार्यके आरम्भमें ही उसे बार-बार देवकी वामगति दिखाई देने लगी। अग्नि-मण्डलके मध्यमें नाड़ीको धौंकनेवाले पुरुषकी तरह उसकी दक्षिण नाड़ी बिना रोगके ही बारम्बार चलने लगी। तोतली बोली बोलनेवालोंकी जीभ जिस प्रकार असंयुक्त वर्णोंका उच्चारण करनेमें भी लड़खड़ाने लगती है, उसी प्रकार उसका रथ बरावर रास्तेमें भी बार-बार फिसलने लगा। उसके घुड़सवारोंने आगे बढ़कर रोका, तो भी मानों किसीने उल्टी प्रेरणा कर दी हो, उसी प्रकार कृष्णसार मृग उसकी दाहिनी
ओरसे बायीं ओर चला आया। सूखे हुए काँटेदार वृक्षपर बैठा हुआ कौआ अपनी चोंचरूपी हथियारको पाषाण पर घिसता हुआ कटुस्वरमें बोलने लगा। उसकी यात्रा रोक देनेकी इच्छासे ही देवने मानों अडङ्गा लगा दिया हो, ऐसा एक काला नाग लम्बा पड़ा हुआ उसके आड़े आया। पीछेकी बातका विचार करने में पण्डित, उस सुवेगको मानों पीछे लौट जानेकी सलाह देनेके ही लिथे, हा उलटी बहने और उसकी आँखोंमें धूल डालने लगी। जिसके ऊपर आटा लगा हुआ नहीं है अथवा जो फूट गया हो, ऐसे मृदङ्गकी तरह बेसुरा शब्द करनेवाला गधा उसकी दाहिनी ओर आकर शब्द करने लगा। इन अपशकुनोंको सुवेग भली भांति जानता-समझता था, तो भी वह आगे चलता ही गया।