________________
प्रथम पर्व
३८६ आदिनाथ-चरित्र फीके और कृश हो गये थे। सुन्दरीकी यह बदली हुई सूरत देख कर महाराजने क्रोधके साथ अपने अधिकारियोंसे कहा,"ऐं ! यह क्या ? क्या मेरे घर में अच्छा अनाज नहीं है ? लवणसमुद्र में लवण नहीं रह गया? सब रसोंके जानने वाले रसोइये नहीं हैं ? अथवा तुम लोग निरादर-युक्त और कामके चोर हो गये हो ? क्या दाख और खजूर आदि खाने लायक मेवे अपने यहां नहीं हैं ? सुवर्ण-पर्वतमें सुवर्ण नहीं रह गया ? बागीचोंक वृक्ष क्या अब फल नहीं देते ? क्या नन्दन वनके वृक्ष भी अव नहीं फलते ? घड़े के समान थनोंवाली गायें क्या अब दूध नहीं देती ? क्या कामधेनुके स्तनोंका प्रवाह भी सूख गया ? अथवा इन सब खाने योग्य उत्तमोत्तम पदार्थोंके रहते हुए भी सुन्दरी किसी रोगसे पीड़ित होनेके कारण खाती ही नहीं है ? यदि इस के शरीरमें ऐसा कोई रोग हो गया है, जो कायाके सौन्दर्यका नाश करने वाला है, तो क्या हमारे यहाँके सब वैद्य मर गये हैं ? यदि अपने घरमें दिव्य औषधि नहीं रही, तो क्या आजकल हिमाद्रि पर्वत भी औषधि-रहित हो गया है ? अधिकारियों! मैं इस दरिद्रीकी पुत्रीकी तरह दुबल बनी हुई सुन्दरीको देख कर बहुत ही दुःखित हुआ। तुम लोगोंने मुझे शत्रुकी तरह धोखा दिया।"
भरत-पतिको इस प्रकार क्रोधसे बोलते देख, अधिकारियोंने प्रणाम कर कहा,-"महाराज! स्वर्ग-पतिकी तरह आपके घरमें सब कुछ मौजूद है। परन्तु जबसे आप दिग्विजय करने घले