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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
समुद्र की मर्यादा वाले सिन्धके उत्तर निष्कृट को विजय करके आया; और अनार्य लोगों को अपनी संगति या सुहबत से आर्य बनाने की इच्छा करते हों इस तरह सुखोपभोग करते हुए चक्रवर्त्ती वहाँ बहु काल तक रहे ।
हिमाचल कुमार देव को साधना ।
एक दिन दिग्विजय करने में ज़मानत स्वरुप, तेजसे विशाल चक्ररत्न आयुधशाला से निकला और क्षुद्र हिमालय पर्वत पर की ओर, पूरब दिशाकी राहसे चला । जलका प्रवाह जिस तरह नीककी राहसे चलता है, उसी तरह चक्रवर्ती भी चक्रके मार्गसे चले | गजेन्द्रकी तरह लीलासे चलते हुए महाराज कितने ही कूवोंके बाद क्षुद्र हिमाद्रिके दक्षिण नितम्ब या दक्खन भागके निकट आये । भोजपत्र, तगर और देवदारुके वनसे आकूल उस भागके एक भाग पाण्डुक वनमें इन्द्रकी तरह महाराजा भरतने अपनी छावनी डाली । वहाँ क्ष ुद्र हिमाद्रि कुमारदेव को उपदेश करके महाराजा भरतने अष्टम तप किया, क्योंकि कार्यसिद्धिमें तपी आदि मंगल है। रातका अवसान या अन्त होने पर, जिस तरह सूर्य पूरब समुद्र के बाहर निकलता है, उसी तरह अष्टमभक्तके अन्तमें तेजस्वी महाराज रथ पर चढ़कर कटकक्षुद्र हिमालय पर्वतको रथके अगले भागले तीन वार तड़ित किया I धनुर्धरकी वैशाष आकृतिमें रह कर तीरन्दाज़ के से पैंतरे बदल कर, महाराजने अपने नामसे अङ्कित बाण हिमाचल