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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र शरण जाओ' इस तरह किरात लोगोंसे कहकर अपने अपने स्थानों को चले गये। देवताओंके बचन से भग्न मनोरथ होकर, दूसरी शरण न होने से, शरण के योग्य भरत महाराज की शरण में वेगये मेरू पर्वत के सार जैसी सुवर्ण राशि, और अश्वरलके प्रतिबिंब सद्दश लाखों अश्व या घोड़े, उन्हों ने भरतराज की भेंट किये । फिर मस्तक पर अञ्जलि जोड़, सुन्दर वचन गर्भित वाणीसे वन्दीजनों के सहोदरों की तरह, ऊँचे खर से कहने लगे -हे जगत्पति ! हे अखण्ड प्रचण्ड पराक्रमी! आपकी विजय हो, आपकी फतह हो, छः खण्ड पृथ्वी-मण्डल में आप इन्द्र के समान होओ। हे राजन् ! हमारी पृथ्वी के किले जैसे वैताढ्य पर्वतके बड़े गुफाद्वार को आपके सिवाय दूसरा कौन खोल सकता है ? हे विजयी राजा! आकाश में ज्योतिश्चन्द्र की तरह, जल के ऊपर सारी सेनाका पड़ाव रखने में आपके सिवा दूसरा कौन समर्थ हो सकता था? हे स्वामिन् ! अद्भुत शक्ति होनेके कारण आप देवताओं से भी अजेय हो, यह बात हमें अब मालूम हुई है ; इसलिये हम मूों का अपराध क्षमा करें। हे नाथ ! नया जन्म देने वाले अपने हाथ हमारी पीठ पर रक्खें। आजके दिन से हम आपकी आज्ञा में चलेंगे।' कृतज्ञ महाराज ने उनको अपने अधीन कर.उनका सत्कारकर बिदा कियाः; उत्तम पुरुषोंके क्रोध की अवधि प्रणाम नमस्कार तक ही होती है ; अर्थात् उत्तम पुरुष चाहे जैसे कुपित क्यों न हो, प्रणाम करते ही शान्त हो जाते हैं, उनकाक्रोध काफूर हो जाता है। चक्रवर्ती की आज्ञा से सेनापति सुषेण पर्वत और
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