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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र कुमार पर छोड़ा। पक्षीकी तरह आकाशमें बहत्तर योजन या पाँच सौ छिहत्तर मील चलकर वह बाण उसके सामने गिरा। अङ्कश को देखकर मतवाला हाथी जिस तरह कुपित होता है : उसी तरह शत्रु के बाणको देखकर उसके नेत्र लाल हो गये; परन्तु बाण को हाथमें लेते हीउसपर सर्पके समान भयकारक नामाक्षर पढ़कर, वह दीपकके समान शान्त हो गया, उसका क्रोध जाता रहा, गुस्सा हवा हो गया। इस कारण प्रधान पुरुषकी तरह उस बाणको साथ रख, भेंट ले वह भरतराजके पास आया। आकाशमें रह कर उच्चस्वरसे “जय जय” कह, बाणकारक पुरुष की तरह, उसने चक्रवर्तीको उनका बांण सोंपा और पीछे देववृक्षके फलोंकी माला, गोशीर्ष चन्दन, सर्वोषधि और पद्मद्रहका जल-ये सब महाराजको भेंट किये, क्योंकि उसके पास यही चीजें सार थीं। इनके सिवा कड़े, वाजूबन्द और दिव्य वस्त्र भेंटके मिषसे दण्डमें महाराजको दिये और कहा-“हे स्वामिन् ! उत्तर दिशा के अन्तमें, आपके चाकरकी तरह मैं रहूँगा।” इस प्रकार कह कर जब वह चुप हो गया तब महाराजने उसका सत्कार कर उसे विदा किया। इसके बाद, क्षुद्र हिमालयके शिखर और शत्रु ओंके मनोरथ जैसा अपना रथ वहाँसे वापस लौटाया। इसके बाद ऋषभनन्दन ऋषभकूट पर्वत पर गये और हाथी जिस तरह अपने दाँतोंसे पर्वत पर प्रहार या चोट करता है, उसी तरह रथ शीर्ष से तीन बार ताड़न किया। पीछे सूर्य जिस तरह किरणकेशको ग्रहण करता है ; उस तरह चक्रवर्तीने, रथको