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________________ प्रथम पर्व ३४१ आदिनाथ-चरित्र वैताढ्य पर्वत के बीच में रहने वाले दक्षिणसिन्धु निष्कूट को साधो और बदरी बन की तरह वहाँ रहने वाले मलेच्छों को आयुध वृष्टि से ताड़नकर, चर्मरत्नके सर्वस्व फलको प्राप्त करो: अर्थात् म्लेच्छों को अपने अधीन करो। वहीं पैदा हुएके समान, जल स्थल के ऊँचे-नीचे सब भागों और किलों तथा दुर्गम स्थानों में जाने को राहों के जाननेवाले, म्लेच्छ-भाषा में निपुण, पराक्रम में सिंह, तेज में सूर्य, बुद्धि और गुण में बृहस्पति के समान, सब लक्षणों में पूर्ण सुषेण सेनापतिने चक्रवर्ती की आज्ञ को शिरोधार्य की। फौरन ही स्वामी को प्रणाम कर वह अपने डेरे में आया । अपने प्रतिबिम्ब- समान सामन्त राजाओं को कूच के लिये तैयार होने की आज्ञा दी फिर स्वयं स्नानकर, बलिदे, पर्वतसमान ऊंचे गजरत्न पर सवार हुआ; उस समय उसने क़ीमती क़ीमती थोड़से ज़ेवर भी पहन लिये। कवच पहना, प्रायश्चित्त और कौतुक मङ्गल किया । कंठ में जयलक्ष्मी को आलिंगन करने के लिये अपनी मुजलता डाली हो, इस तरह दिव्य हार पहना । प्रधान हाथी की तरह वह पद से सुशोभित था। मूर्त्तिमान शक्ति की तरह एक छुरी उसकी कमर में रक्खी हुई थी। पीठ पर सरल : आकृतिवाले सोने के दो तरकश थे, जो पीठ पीछे भी युद्ध करने के लिये दो वैक्रिय हाथ-जैसे दीखते थे | गणनायक, दण्डनायक, सेठ, सार्थवह, सन्धिपाल और नौकर-चाकरों से वह युवराज की तरह घिरा हुआ था। मानो आसन ही के साथ पैदा हुआ हो, इस तरह उसका अग्रासन •
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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