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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम-पर्व " हे स्वामिन् ! इस तमिस्रा गुफाके द्वार में, मैं आपके द्वारपाल की तरह रहता हूँ। यह कह कर उसने भूपति की सेवा अंगीकार की। स्त्री रत्न के लायक अनुत्तम सर्वश्रेठ चौदह तिलक और दिव्य आभरण समूह उसने महाराज के भेंट किये। उसके साथ ही, मानो महाराज के लिएही पहले से रख छोड़ी हों ऐसी, उनके योग्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र भी अर्पण किये। चक्रवर्ती ने उन सब को स्वीकार कर लिया ; क्योंकि कृतार्थ हुए राजा भी दिग्विजय की लक्ष्मी के चिह्नरूप ऐसे दिशादण्ड को नहीं छोड़ते। अध्ययन के बाद उपाध्याय जिस तरह शिष्यको आज्ञा देता है--सबक पढ़लेने बाद उस्ताद जिस तरह शागिर्द को छुट्टी देता है, उसी तरह भरतेश्वर ने उस से अच्छी-अच्छी मीठी-मीठी बातें करके उसे विदा किया। इसके बाद मानो अलग किये हुए अपने अंश हो और ज़मीन पर पात्र रखकर सदा साथ जीमने वाले राज कुमारों के साथ उन्होंने पारणा किया। फिर कृतमालदेव का अष्टाम्हिका उत्सव किया। नम्रता से वश किये हुए स्वामी सेवक के लिये क्या नहीं करते? दक्षिण सिंधु निष्कूट साधने के लिये
सेनानी को भेजना। दूसरे दिन, इन्द्र जिस तरह नैगमेषी देवता को आज्ञा देता है: उसी तरह महाराज ने सुषेण सेनापति को बुलाकर आज्ञा दी'तुम चर्मरत्न से सिन्धु नदी को पार करके, सिन्धु, समुद्र और