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आदिनाथ - चरित्र
३४२ पथम पर्व निश्चल था। सफेद छत्र और चंवर से सुशोभित देवतुल्य उस सेनापति ने अपने पाँव के अँगूठे से हाथी को चलाया। चक्रवर्ती की आधी सेनाके साथ वह सिन्धु नदीके किनारे पर पहुँचा । सेनाके चलने से उड़नेवाली धूल से मानो पुल बाँधता हो, ऐसी स्थिति उसने करदी | जो बारह योजन- छियानवे मील तक बढ़ सकता था, जिस पर सवेरा का बोया हुआ अनान सन्ध्या समय उग सकता था, जो नदी, द्रह तथा समुद्रके पार उतार सकता था, उस चर्मरत्न को सेनापति ने अपने हाथ से छूआ । स्वाभाविक प्रभाव से उसके दोनों सिरे किनारे तक बढ़कर चले गये। तब सेनापति ने उसे तेल की तरह पान पर डाला । उस चर्म रत्न के ऊपर होकर वह पैदल सेना सहित नदीके परले किनारे पर जा उतरा ।
दक्षिण सिंधु निष्कूट की साधना ।
धनुष के निर्घोष शब्द
सिन्ध के समस्त दक्षिण निष्कूट को साधने की इच्छा से वह प्रलय काल के समुद्र की तरह फैल गया। से, दारुण और युद्ध में कौतुक वाले उस सेनापति ने सिंह की तरह, सिहल लोगों को लीलामात्र से पराजित कर दिया। बर्नर लोगों को मोल ख़रीदे हुए किङ्करों-क्रीत दासों या गुलामों की तरह अपने अधीन किया और टंकणों को घोड़ों के समान राज चिह्न से उसने अङ्कित किया । रत्न और माणिकों से भरे हुए जलहीन रत्नाकर सागर जैसे यवन द्वीपको उस नर केशरीने लीला