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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र से बनाये हुए मगर के चित्र नाशको प्राप्त हुए कामदेव द्वारा छोड़े हुए अपने चिन्ह रूप मगर के भ्रमको करते थे। भगवान् के केवल ज्ञान कल्याण से उत्पन्न हुई दिशाओं की हँसी हो, इस तरह सफेद सफेद छत्र वहाँ शोभायमान थे। मानों अत्यन्त हर्ष से पृथ्वीने स्वयं नाच करने के लिये अपनी भुजायें ऊँची की हों, इस तरह ध्वजा पताकायें फड़कती थीं। तोरणोंके नीचे जो स्वस्तिकादिक अष्ट मङ्गलिकके श्रेष्ठ चिन्ह किये गयेथे, वे वलिपद जैसे मालूम होते थे। समवसरण के ऊपरी भागका गढ विमान पतियों या वैमानिक देवताओं ने रत्नों का बनाया था। इससे रत्नगिरी की रत्नमय मेखला वहां लाई गई हो, ऐसा जान पड़ता था। उस गढ़ पर नाना प्रकार की मणियों के कंगूरे वनाये थे। वे अपनी किरणों से आकाश को विचित्र रङ्गोंके कपड़ों बाला बनाते थे। बीचमें ज्योतिस्पति देवताओंने, मानों पिण्डरूप अपने अङ्गकी ज्योति हो, इस तरह का सोनेका दूसरा गढ़ रचा था। उन्होंने उस गढ़पर रत्नमय कंगूरे लगाये थे, वे सुर असुर पत्नियों के मुंह देखने के दर्पण या आईने से मालूम होते थे। भुवन पतियों ने बाहर की
ओर एक चाँदीका तीसरा गढ़ बनाया था, उसके देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया बैताब्य पर्वत भक्तिसे मण्डल रूप हो गया है। उस गढ़ पर जो सोनेके कंगूरे बनाये थे, वे देवताओं की वापड़ियों के गले में सोने के कमलसे मालूम होते थे। वह तीनों गढ़वाली पृथ्वीभुवनपति, ज्योतिस्पति और विमानपति की लक्ष्मी के एक एकगोलाकार कुण्डल से शोभे इस तरह शोभती थी। पताका