________________
आदिनाथ-चरित्र २८८
प्रथम पर्व ओंके समूह वाले मणिमय तोरण, अपनो किरणों से मानों दूसरी पताकाये बनाते हों, इस तरह दीखते थे। उनमें से प्रत्येक गढ़में चार चार दरवाज़े थे। वे चार प्रकारके धर्म की क्रीड़ा करने को खड़े हों, ऐसे मालूम होते थे। प्रत्येक दरवाजे पर व्यन्तरों के रखे हुए धूपपात्र या धूपदानियाँ इन्द्रनीलमणि के खम्भों के जैसी धूम्रलता या धूएं की बेलसी छोड़ती थीं। अर्थात् धूपदानियोंमें रखी हुई धूपसे जो धूआँ उठता था, वह नीलम का खम्भा सा मालूम होता था। उस समवसरणके प्रत्येक द्वारमें, गढ़की तरह, चार चार दरवाज़ों वाली, सोनेके कमलों सहित बावड़ियाँ बनायी थीं। दूसरे गहमें, प्रभुके आराम करने के लिए एक देव छन्द बनाया था। भीतरके पहले कोटके द्वार पर, दोनों ओर, सोनेके से वर्ण वाले, दो वैमानिक देवद्वार पालकी ड्यू टी बजाने को खड़े थे। दक्खन द्वारमें, दोनों तरफ, मानो एक दूसरे के प्रतिबिम्ब या अक्स हों, इस तरह उज्ज्वल व्यन्तर देवद्वारपाल हुए थे। पच्छमी द्वारपर, संध्या-समय जिस तरह सूर्य और चन्द्रमा आमनेसामने हो जाते हैं, इस तरह लाल रङ्ग वाले ज्योतिस्क देव द्वारपाल बनकर खड़े थे। उत्तर द्वार पर मानो उन्नत मेघ हों, इस तरह काले रङ्गके भुवनपतिदेव दोनों ओर द्वारपाल बने खड़े थे। दूसरे गढ़के चारों द्वारों के दोनों तरफ अनुक्रमसे अभय, पास, अंकुश ओर मुद्गर धारण करने वाली-श्वतमणि, शोण मणि, स्वर्णमणि और नीलमणि की जैसी कान्ति वाली, पहले की तरह, चार निकायकी जया, विजया, अजिता और अपराजिता