________________
आदिनाथ-चरित्र २२२
प्रथम पर्व प्रवेश किया। किसी त्रायस्त्रिंश देवाताने, मानों तत्काल ज़मीन से निकला हो इस तरह, वेदी में अग्नि प्रकट की। उसमें समिध डालने से, आकाशचारी मनुष्यों-विद्याधरों की स्त्रियों के कानों के अवतंस रूप होने वाली धूएँ की रेखा आकाश में छा गई। इस के वाद स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगी और प्रभुने सुनन्दा और सुमंगला के साथ, अष्ट मंगल पूर्ण होने तक, अग्नि की प्रदक्षिणा की। इसके बाद ज्योंही आशीर्वादात्मक गीत गाये जाने लगे, त्योंही इन्द्रने उनके हथलेवा और पल्ले की गाँठे छुड़ा दीं। पीछे प्रभुके लग्न उत्सव से उत्पन्न हुई खुशीसे, रंगाचार्य या सूत्रधारकी तरह आचरण करता हुआ, हस्ताभिनयकी लीला बताता हुआ इन्द्र इन्द्राणियों के साथ नाचने लगा। हवा से नचाये हुए वृक्षोंके पीछे जिस तरह उससे लिपटी हुई लताये नाचा करती हैं, उसी तरह इन्द्रके पीछे और देवता भी नाचने लगे। कितने ही देवता चारणोंकी तरह जय जय शब्द करने लगे। कितने ही भरतकी तरह अजब तरह के नाच करने लगे। कितने ही जन्मके गन्धर्व हों इस तरह नाच करने लगे। कितने ही अपने मुखों से बाजों का काम लेने लगे। कितने ही बन्दरों की तरह संभ्रम से कूदने फाँदने लगे। कितनेही हँसाने वाले विदूषकों की तरह लोगों को हँसाने लगे और कितनेही प्रतिहारी की तरह लोगों को दूर दूराने लगे। इस तरह भक्ति दिखाने वाले हर्ष से उन्मत्त देवताओं से घिरे हुए और दोनों वगलोंमें सुनन्दा और सुमंगला से सुशोभित प्रभु दिव्य वाहन में बैठ कर अपने स्थान को पधारे। जिस