________________
आदिनाथ-चरित्र
२२०
प्रथम पर्व
जब शुभ लग्नका उदय हुआ; यानी ठीक लग्नकाल आया, तब सावधान हुए प्रभुने दोनों बालाओंके लेपपूर्ण हाथ अपने हाथ से पकड़ लिये। उस समय इन्द्रने जिस तरह जलके क्यारे में साल का बीज बोते हैं, उसी तरह लेपवाले दोनों बालाओंके हस्त सम्पुट में एक मुद्रिका डालदी। प्रभुके दोनों हाथ उन दोनोंके हाथोंके साथ मिलते ही दो शाखाओंमें इलझी हुई लताओंसे वृक्ष जिस तरह शोभता है; उस तरह शोभने लगे। जिस तरह नदियोंका जल समुद्र में मिलता है; उसी तरह उस समय तारामेलक पर्व में वधू और वरकी दृष्टि परस्पर मिलने लगी। विना हवा के जलकी तरह निश्चल दृष्टि दृष्टिसे और मन मनके साथ आपसमें मिल गये और एक दूसरेकी पुतलियोंमें उनका अक्स पड़ने लगा; यानी एक दूसरे की कीकियोंमें के परस्पर प्रतिबिम्बित हुए। उस समय ऐसा मालूम होने लगा, मानो वे एक दूसरे के हृदयमें प्रवेश कर गये हों। जिस तरह विद्युत-प्रभादक मेरु के पास रहते हैं, उसी तरह उस समय सामानिक देव भगवान् के निकट अनुवरों की तरह खड़े हुए थे। कन्यापक्षकी स्त्रियाँ, जो हसी दिल्लगी में निपुण थीं । अनुवरोंको इस भाँति कौतुक धवल गीत गाली गाने लगी:-ज्वर वाला मनुष्य जिस तरह समुद्र सोखने की इच्छा रखता है। उसी तरह यह अनुवर लड्डु, खानेको कैसा मन चला रहा है ! कुत्ता जिस तरह मिठाई पर मन चलाता है, उसी तरह माँडा पर अखण्ड दृष्टि रखने वाला अनुबर कैसे दिलसे उसे चाह रहा है ! मानो जन्मसे कभी देखेही न हों इस