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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
जंगम तोरण बना है और त्रिलोकी में उत्तम ऐसे वर रोज तोरण-द्वार में खड़े हुए हैं। उनका शरीर उत्तरीय वस्त्रके अन्तर पटसे ढका हुआ है, इसलिये गड़गा नदीकी तरंग में अन्तरीतयुव राज हंसके समान शोभ रहे हैं । हे सुन्दरि ! हवासे फूल झड़े पड़ते हैं और चन्दन सूखा जाता है, अतः इन वरराज को अब द्वार पर बहुत देर तक न रोक। देवांगनायें इस तरह मंगल-गीत गारही थीं; ऐसे समय में उस कसूमी रङ्ग के कपड़े पहने हुए और मथन-दण्ड लिये हुए खड़ी स्त्रीने त्रिजगत् को अध्य देने योग्य वर राज को अर्घ्य दिया और सुन्दर लाल लाल होठों वाली उस देवीने धवल मङ्गल के जैसा शब्द करते हुए अपने कंगन पड़े हुए हाथ से त्रिजगत्पति के भाल का तीन वार मथन दण्डसे चुम्बन किया। इसके बाद प्रभुने अपनी वाम पादुका से, हीम कर्पर की लीला से, आग समेत शराव सम्पुट का चूर्ण कर डाला और वहाँ से अर्घ्य देनेवाली ललना द्वारा गले में कसूमी कपड़ा डाल कर खींचे हुए प्रभु मातृभवन में गये। वहाँ कामदेवका कन्द हो ऐसे मिंढोल से शोभायमान हस्त-सूत्र वधू और वर के हाथों में बाँधे गये। जिस तरह केसरी सिंह मेरु पर्वत की शिला पर बैठता है, उसी तरह वरराज मातृ-देवियोंके आगे, ऊँचे सोने के सिंहासन पर बिठाये गये। सुन्दरियोंने शमी वृक्ष
और पीपल वृक्षकी छालों के चूर्ण का लेप दोनों कन्याओंके हाथों में किया। वह कामदेव रूपी वृक्षका दोहद पूरा हो ऐसा मालूम होता था। ..