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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र मैंने यह समझकर कि, कभी तो इसे लाज आयेगी और यह स्वयं समझ-बूझकर ऐसी बातोंसे अलग हो जायगी, मैंने लजाके मारे कितने ही दिनों तक उसकी अवज्ञा-पूर्वक उपेक्षाकी; तोभी वह अपनी कुलटा नारीके योग्य बातें कहनेसे बन्द न हुई। अहो! स्त्रियोंका कैसा असद् आग्रह होता है ! हे मित्र ! आज मैं आपको खोजनके लिए आपके घर पर गया था। उस समय छल-कपट से भरी हुई उस स्त्रीने राक्षसीकी तरह मुझे रोक लिया, लेकिन हाथी जिस तरह बन्धनको तुड़ाकर अलग हो जाता है; उसी तरह मैं भी उसके पर्छसे बड़ी कठिनाईसे छूटकर जल्दी-जल्दी यहाँ आरहा था। राहमें मैंने विचार किया कि, यह स्त्री मुझे जीता न छोड़ेगी। इसलिये मैं खुदही आत्मघात करलूँ तो कैसा ? परन्तु मरना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में-मेरे न रहने पर, वह स्त्री मेरे मित्रसे इन सब बातों को कहेगी; यानी इसके विपरीत कहेगी; इसलिये मैं स्वयं ही अपने मित्रसे ये सब बातें कह दूं, जिससे स्त्रीका विश्वास करके वह नष्ट न हो जाय । अथवा यह कहना भी उचित नहीं, क्योंकि मैंने उस स्त्रीका मनोरथ पूर्ण नहीं किया, तब उसकीबुरी बातको कहकर घाव पर नमक क्यों छिड़कू ? मैं ऐसे विचारों में गलता-पेचा हो रहा था, कि आपने मुझे देख लिया। हे भाई, यही मेरे उद्वेग का कारण है।' अशोकदत्तकी बातें सुनते ही मानो हालाहल विष पान किया हो, इस तरह पवन-रहित समुद्र की तरह सागरचन्द्र स्थिर हो गया। . .