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________________ आदिनाथ - चरित्र १३८ प्रथम पत्र तरह, यह वृत्तान न तो छिपाया ही जा सकता है और न प्रकट ही किया जा सकता है । ' 1 इस तरह कहकर और कपटके आँसू दिखाकर अशोकदत्त चुप होगया । निष्कपट सागरचन्द्र मनमें बिचार करने लगा'अहो ! यह संसार असार है, जिसमें ऐसे पुरुषों कोभी अकस्मात् ऐसे सन्देहके स्थान प्राप्त हो जाते हैं। धूआं जिस तरह अग्नि की सूचना देता है, उसी तरह, धीरज से न सहे जाने योग्य, इसके भीतरी उद्व गकी इसके आँसू, ज़बर्दस्ती, सूचना देते हैं।' इस तरह चिरकाल तक विचार करके, उसके दुःखसे दुखी सागरचन्द्र गद्गद स्वरसे इस प्रकार कहने लगा- 'हे बन्धु ! यदि अप्रकाश्य न हो, कहने में हर्ज न हो, तो अपने इस उद्वेगके कारणको मुझसे इसी समय कहो और अपने दुःखका एक भाग मुझे देकर अपने दुःखकी मात्रा कम करो ।' अशोकदत्तने कहा - ' प्राण- समान आपसे जब मैं कोईभी बात छिपाकर नहीं रख सकता, तब इस वृत्तान्तको ही किस तरह छिपा सकता हूँ ? आप जानते हैं कि, अमावस्याकी रात जिस तरह अन्धकारको उत्पन्न करती है, उसी तरह स्त्रियाँ अनर्थको उत्पन्न करती हैं ।' सागरचन्द्र ने कहा- 'भाई ! इस समय तुम नागिनके जैसी किसी स्त्रीके संकट में पड़ेहो ?' अशोकदत्त बनावटी लजाका भाव दिखाकर बोला :- 'प्रियदर्शना मुझसे बहुत दिनोंसे अनुचित बात कहा करती थी; परन्तु
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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