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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र याद ! रे पुरुषाधम! रे कुलाकार नीच! तैने ऐसा विचार कैसे किया और किया तो मुझसे कहा कैसे ? मूर्खके ऐसे साहस को धिक्कार है ! अरे दुष्ट ! मेरे महात्मा पतिकी तू औरही तरह अपनेजैसी सम्भावना करता है , तो मित्रके मिषसे तुझ शत्रु-जैसे को धिकार है ! रे पापी ! चाण्डाल ! तू यहाँसे चला जा, खड़ा न रह, तेरे देखने से भी पाप लगता है।'
अशोक और सागर का मिलन ।
अशोक की घोर नीचता।
कपटपूर्ण बातें। प्रियदर्शनासे इस तरह अपमानित होकर, अशोकदत्त चोर की तरह वहाँसे लम्बा हुआ । गो-हत्या करने वालेकी तरह, पाप रूपी अन्धकारसे मलीन मुखी और विमनस्क अशोकदत्त चला जाता था कि, इतने में उसे सामने से आता हुआसागरचन्द्र दीख गया। स्वच्छ अन्तःकरणवाले सागरचन्द्रने उससे चार नज़र होतेही पूछा- मित्र ! तुम उद्विग्न से कैसे दीखते हो ?” सागरकी बात सुनते ही , दीर्घ निःश्वास त्याग कर, कष्टसे दुखित हुएके समान, होठोंको चबाते हुए, मायाके पहाड़ अशोकने कहा' हे भाई ! हिमालय पर्वतके नज़दीक रहने वालोंके सरदी से ठिठरनेका कारण जिस तरह प्रकट है; उसी तरह इस संसार में बसने वालोंके उद्योग का कारणभी प्रगटही है। कुठौरके फोड़ेकी