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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र फल है ; जिस से मैं, मनुष्यलोक में रह कर भी, नरक की व्यथा भोगता हूँ। मै जन्म से दरिद्री हूँ और मेरे इस दरिद्रका प्रतिकार भी नहीं हो सकता। मैं इस जन्म के प्रतिकार-रहित दरिद्र से उसी तरह क्षीण हो गया हूँ'; जिस तरह दीमक से वृक्ष क्षीण हो जाता है। प्रत्यक्ष अलक्ष्मी-स्वरूपा पूर्वजन्म की वैरिणी और कुलक्षणा-कन्याओंने मुझे बड़ा कष्ट दिया है। यदि इस बार भी कन्या पैदा हुई, तो मैं कुटुम्ब को त्याग कर देशान्तर में जा रहूँगा' ।
निर्नामिका और केवली का समागम । "वह इस तरह चिन्ता किया करता था कि, इस बीच में उस दरिद्र कीघरवाली ने कन्या जनी । कान में सूई घुसने की तरह उस ने कन्या-जन्म की बात सुनी । इस के बाद, दुष्ट बैल जिस तरह भार को छोड़कर चल देता है, उसी तरह वह नागिल कुटुम्ब को छोड़कर चल दिया। उसकी स्त्री को, प्रसव-दुःख के ऊपर, पति के परदेश चले जाने की व्यथा, ताज़ा घाव पर नमक पड़ने के समान प्रतीत हुई । अत्यन्त दुःखिता नागश्रीने उस कन्याका नाम भी न रक्खा ; इसलिये लोग उस कन्या को निर्नामिका नाम से पुकारने लगे । नागश्रीने उस का पालन-पोषण भी अच्छी तरह से नहीं किया ; तोभी वह कन्या बढ़ने लगी । वजाहत प्राणीकी भी, यदि आयु शेष न हुई हो तो, मृत्यु नहीं होती। अत्यन्त अभागी और माता को उद्वेग करानेवाली वह कन्या दूसरों के घरों में नीचे काम करके दिन काटने लगी। एक दिन, उत्सव