________________
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व के समय, किसी धनी के बालक के हाथ में लड्डू देखकर, वह अपनी मां से लड्डु, माँगने लगी। उस समय उसकी मां ने क्रोधित होकर कहा-“मोदक क्या तेरे बाप होते हैं, जो तू मांगती है ? अगर तेरी लड्डू खाने की ही इच्छा है, तो अम्बर तिलक पर्वत पर, काठ की भारी लाने के लिए, रस्सी लेकर जा।” अपनी माता को, जङ्गली कण्डे कीआग के समान, दाह करनेवाली बात सुनकर, रोती हुई वह बालारस्सी लेकर पर्वत की ओर चली । उस समय, उस पर्वत पर, एक रात्रिकी समाधि में रहे हुए युगन्धर मुनि को केवल ज्ञान हुआ था। इस से निकट रहने वाले देवताओं ने केवल-ज्ञान की महिमा का उत्सव मनाना आरम्भ किया था। पर्वत के पास के नगर और गाँवों के लोग यह समाचारसुनकर, उस मुनीश्वरको नमस्कार करने के लिए जल्दी-जल्दी आ रहे थे। नाना प्रकार के अलङ्कारोंसे भूषित लोगोंको आते देखकर, वह निर्नामिका कन्या विस्मित होकर, चित्र-लिखीसी खड़ी रही। फिर बातों ही बातों में लोगों के आने का कारण जानकर, दुःख-रूपी भारी के समान काठ की भारी को वहीं पटक कर, वह भी वहाँ से चल दी और दूसरे लोगों के साथ पहाड़ पर चढ़ गई। तीर्थ सब के लिए खुले रहते हैं। उन मुनिराज के चरणों को कल्पवृक्ष के समान मानने वाली निर्नामिका कन्याने बड़े आनन्द से उन को वन्दना की। कहते हैं कि, गतिकी अनुसारिणी मति होती है; अर्थात् जैसी होनहार होती है, वैसी ही मति हो जाती है। मुनीश्वर ने, मेघवत् गम्भीर वाणी से,