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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ८५
उसका ' महाकाव्य' बना हुआ है । जब तक मध्य वर्ग जीवित है तब तक उपन्यास और कहानी की श्रेष्ठता और उसके विकास में कोई कमी नहीं की । प्रत्युत उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि होने की पूर्ण आशा है और वृद्धि निश्चित रूप से हो रही है । जो लोग आधुनिक कहानी की असमर्थता की बात कहते हैं. उसे युग मानस की संवेदनाओं को वहन करने में अक्षम समझते हैं, उसमें शैथिल्य और दौर्बल्य देखते हैं, वे या तो कहानी पढ़ते नहीं, या किसी विशेष अभिप्राय से ऐसा कहते हैं । क्योंकि युग-मानस से अलग होते ही उपन्यास और कहानी अन्तिम साँस लेने लगेगी- जो बात अभी बहुत दिनों तक सोची भी नहीं जा सकती । समाज सापेक्षता तो उपन्यास और कहानी का प्रारण है । कविता के सम्बन्ध में ज्यों-की-त्यों यह बात नहीं कही जा सकती । जीवन कविता के पीछे रहता है, लेकिन कहानी के आगे रहता है । जिस दिन कहानी जीवन को आगे कर नहीं चलेगी, उस दिन वह मर जाएगी । जीवन के इतने अधिक नैकट्य के कारण ही उसकी शिल्पविधि में विविधता आती है; वह नाटक और कविता की भाँति नियमों और सिद्धान्तों के जटिल बन्धनों में अपने को बाँध नहीं पाती, बाँध नहीं सकती । कविता की भाँति कहानी आत्मपरक भी नहीं होती; इसलिए 'नई कविता' और आधुनिक कहानी को समकक्ष रखने की चेष्टा अवैज्ञानिक है । इधर इस सम्बन्ध में जितनी चर्चाएँ पढ़ी-सुनीं उनमें यह देखने को मिला कि उनकी भाषा शैली और शब्दावली लगभग वही है, जो 'नई कविता' पर विचार करते समय व्यवहार में लाई जाती थी । मेरी समझ में यह ठीक नहीं है । कहानी कविता के वजन की चीज नहीं हो भी नहीं सकती ।
आज की कहानी के सन्दर्भ में, उसकी नवीन कलात्मक सर्जना और सत्यान्वेषण के सन्दर्भ में, हिन्दी कहानी - परम्परा को ध्यान में रखना आवश्यक है । यह सर्वविदित है कि हिन्दी कहानी का जन्म राष्ट्रीय और सामाजिक आन्दोलनों के क्रोड़ में हुआ और उस समय