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१५२ / आधुनिक कहानी का परिपार्श्व
१९६० के पश्चात् 'नई' कहानी में व्यापक सामाजिक सन्दर्भों के यथार्थ परिप्रेक्ष्य में अभिनव अर्थवत्ता प्रदान करने का बहुत बड़ा श्रेय सुरेश सिनहा को हैं । १६६० में जहाँ पिछले दशक के लगभग सभी कहानीकार घोर श्रात्मपरक दृष्टिकोण को आत्मसात् कर कहानियाँ लिखने लगे थे, और १९६० के पश्चात समूची नई उभरने वाली पीढ़ी उसी आत्मपरकता का अनुसरण करने में लगी हुई थी, वहाँ प्रगतिशील दृष्टिकोण लेकर समष्टिगत चिन्तन के आधार पर सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने की ओर प्रवृत्त होना एक महत्व पूर्ण बात थी और इसमें अकेले होने पर भी सुरेश सिनहा सफल रहे हैं । 'एक अपरिचित दायरा', 'नया जन्म', 'टकराता हुआ आकाश', 'सुबह होने तक', 'तट से छुटे हुए', 'वतन' तथा 'अपरिचित शहर में' आदि सभी कहानियाँ इस कथन की सत्यता प्रमाणित करती हैं और १९६० के बाद आज की कहानी की नई दिशा का संकेत करती हैं - इस दृष्टि से उनके 'कई कुहरे' कहानी संग्रह का विशेष महत्व है ।
'एक अपरिचित दायरा', 'सुबह होने तक', 'तट से छुटे हुए', 'कई कुहरे', 'मृत्यु और....' तथा 'उदासी के टुकड़े' उनकी अब तक की लिखी कहानियों की उपलब्धियाँ हैं ।
ज्ञानरंजन भी १९६० के पश्चात् ही उभरे लेखक हैं, पर सुरेश सिनहा के विपरीत में उनकी भावधारा वैयक्तिक चेतना पर आधारित है और अपनी कहानियों में उन्होंने आत्मपरक दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति 'देने की चेष्टा की है । 'दिवास्वप्नी', 'खलनायिका और बारूद के फूल', 'अमरूद का पेड़', 'बुद्धिजीवी', 'शेष होते हुए', ' फेन्स के इधर और उधर', 'सम्बन्ध', सीमाएँ' तथा 'पिता' आदि उनकी सभी कहानियाँ व्यष्टि चिंतन का परिणाम हैं जिनमें मध्यवर्गीय जीवन की तथाकथित आधुनिकता एवं विघटित मानव मूल्यों की ओर संकेत है और उनकी अनुपयोगिता एवं निर्जीविता पर कठोर प्रहार है । ज्ञानरंजन के पास मँजा हुआ शिल्प है और अपनी विभिन्न कहानियों में उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रणालियों से