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१३८/आधुनिक कहानी का परिपार्श्व वहाँ आग्रहमूलक लेखन ही हो सकता है।' ऐसी धारणा से असहमत होने का प्रश्न नहीं उठता और जहाँ तक कमलेश्वर का प्रश्न है, एक लम्बी यात्रा तक उन्होंने इस धारणा को अपनी कहानियों में यथार्थ अभिव्यक्ति भी दी है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि अब उनके लिए जनवादी भावनाओं या प्रगतिशील दृष्टिकोण उतना महत्वपूर्ण नहीं लगता, जितना कि व्यक्ति या उसका अस्तित्व । मुझे ऐसा लगता है कि कामू, काफ़्का या सात्र ने जिस प्रकार आधुनिक काल में हिन्दी कहानीकारों को प्रभावित किया है, कमलेश्वर भी उससे अपने को बचा नहीं पाए हैं और व्यक्ति का अहं या निजत्व तथा आत्मपरक दृष्टिकोण के प्रति उनका सर्जनशील मन आग्रही हो गया है । 'तलाश', 'दुःखों के रास्ते', 'माँस का दरिया' या 'ऊपर उठता हुआ मकान' इस विश्वास को पुष्ट करने वाली कहानियाँ हैं।
'नीली झील', 'कस्बे का आदमी', 'खोयी हुई दिशाएँ', 'ऊपर उठता हुआ मकान', तथा 'माँस का दरिया' उनकी अब तक की उपलब्धियां हैं।
राजेन्द्र यादव ( १८ अगस्त, १९२६ ) कलावादी हैं जिन पर. प्रगतिशीलता या सामाजिक यथार्थ का मुखौटा लगा रहता है। यह मुखौटा इतना महीन होता है कि ज़रा-से प्रयास से उसकी परतें उधेड़ी जा सकती हैं और फिर उनकी कहानियों की वास्तविक रंगत सामने
आ जाती है, अर्थात् उनकी व्यक्तिमूलक चेतना स्पष्टतया उभर आती है । राजेन्द्र यादव अपने दशक के कदाचित् एक मात्र ऐसे लेखक हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य अपनी प्रत्येक कहानी से अपने सहवर्गियों को नहीं, पाठकों को चौंकाना ही रहा है। इसके लिए चौंकाने वाले कथानक, विस्मयपूर्ण लगने वाले शीर्षक और नए-से-नए शिल्पविधान आदि के अन्वेषण के प्रति ही उनकी सारी प्रयत्नशीलता सीमित रही है और, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, वे यथार्थता या जीवन-संवेदनाओं का आभास देने का प्रयत्न भर करते हैं-'जहाँ लक्ष्मी कैद है', 'लंच