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१२४/प्राधुनिक कहानी का परिपार्श्व लिए कहानीकार जिन कथा-सूत्रों को आवश्यक समझते हुए ग्रहण करता है, उन्हें भी वह एक सूत्र में संगुफित करने की आवश्यकता नहीं समझता, बल्कि उन्हीं के माध्यम से वह अपने पात्रों के मानस का विश्लेषण करते हुए उनके व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के उद्देश्य से उन पर 'रिफ्लेक्शन' डालता है। धर्मवीर भारती की 'बन्द गली का आखिरी मकान', मोहन राकेश की 'कई एक अकेले', नरेश मेहता की 'अनबीता व्यतीत', राजेन्द्र यादव की 'किनारे से किनारे तक', कमलेश्वर की 'तलाश', सुरेश सिनहा की 'तट से छुटे हुए', उषा प्रियंवदा की 'खुले हुए दरवाजे', मन्नू भण्डारी की 'तीसरा आदमी', ज्ञानरंजन की 'खलनायिका और बारूद के फूल', रवीन्द्र कालिया की 'त्रास' आदि कहानियाँ इसी प्रकार की हैं।
३-कहानियाँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहीं से आज की कहानी प्रारम्भ होती है । यह प्रवृत्ति पिछले दौर में थी और प्रेमचन्द की 'कफ़न', जैनेन्द्र कुमार की 'एक रात', 'अज्ञेय' की 'कोठरी की बात'
आदि कहानियाँ इस ढंग की प्राप्त भी होती हैं । पर आज की कहानी ने इस प्रवृत्ति को और भी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनाने की चेष्टा की है। . इस प्रकार आज की कहानी पाठकों से इस बात की माँग करती है कि जिस बिन्दु पर लाकर वह उन्हें छोड़ देती है, वहां से दिए गए दो-चार अस्पष्ट संकेतों, व्यंजनाओं एवं प्रतीकों से वे सारे कथानक की ही नहीं, पात्रों के चरित्रों के सम्बन्ध में भी कल्पना कर लें और अपने-अपने निष्कर्ष निकाल लें । इस प्रकार की कहानियाँ पहले दोनों वर्गों की तुलना में अधिक दुरूह, जटिल एवं बौद्धिकता का आग्रह लिए हए होती हैं। धर्मवीर भारती की 'धुआँ', मोहन राकेश को 'सेफ्टीपिन', राजेन्द्र यादव की ‘एक कटी हुई कहानी', कमलेश्वर की 'जो लिखा नहीं जाता', नरेश मेहता की 'चाँदनी',कृष्णा सोबती की 'सिक्का बदल गया', निर्मल वर्मा की 'कुत्ते की मौत', श्रीकान्त वर्मा की शवयात्रा', सुरेश सिनहा की 'कई कुहरे', सुधा अरोड़ा की ‘एक अविवाहित पृष्ठ', ज्ञान