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________________ ॐ सिद्ध भगवान् न इन अतीव भयानक दुःखों से व्यथित होकर-घबड़ा कर नारकी जीव बड़ी लाचारी और दीनता दिखलाते हैं। दोनों हाथों की दशों उँगलियाँ मुँह में डाल कर, पैरों में नाक रगड़ते हुए प्रार्थना करते हैं-बचाओ, हमें बचाओ! मत मारो। अब हम कभी ऐसा पाप.नहीं करेंगे। अब न सताओ ! नारकों के इस प्रकार के करुणापूर्ण शब्द सुनकर परमाधामी देवों को तनिक भी तरस नहीं आता। वे लेशमात्र भी दया नहीं दिखलाते । उनके करुण क्रन्दन पर जरा भी विचार न करके, उलटे ठहाका मारकर उनकी हँसी उड़ाते हैं और अधिकाधिक व्यथा पहुँचाते हैं । ____ यहाँ स्वभावतः दो प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि परमाधामी असुर नारक जीवों को क्यों दुःख देते हैं और दूसरा प्रश्न यह कि परमाधामी असुरों को पाप लगता है या नहीं ? पहले प्रश्न का उत्तर यह है कि जो लोग निर्दय होते हैं, शिकार खेलने तथा हाथी, बैल, मेष, कुत्ता आदि जानवरों को लड़ाने में आनन्द मानते हैं अथवा जो बालतपस्वी अग्निकाय, जलकाय एवं वनस्पतिकाय के असंख्यात जीवों की घात करके अज्ञान-तप करते हैं, वे मर कर परमाधामी देव होते हैं। वे स्वभावतः नारकी जीव को लड़ाने-भिड़ाने और कष्ट पहुँचाने में आनन्द मानते हैं । ऐसा उनका पूर्व जन्म का कुसंस्कार है। इसी कुसंस्कार से प्रेरित हो कर दुःख देते हैं। दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप करने वाले को फल अवश्य भोगना पड़ता है । 'कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि ।' किये हुए कर्म का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता । आगम के इस कथन के अनुसार चाहे देव हो या मनुष्य, पशु हो या पक्षी, कोई भी अपने भले-बुरे कर्म के फल से बच नहीं सकता। अतः परमाधामी देवों को भी अपने कृत्यों का फल मिलता हैं । परमाधामी देव मरने के बाद बकरा, मुर्गा आदि की नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं और अपूर्ण आयु में ही मारे जाते हैं। आगे भी उन्हें विविध प्रकार की व्यथाएँ भोगनी पड़ती हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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