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________________ ® जैन-तत्त्व प्रकाश ® परस्परजनित वेदनाएँ जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सिर्फ तीसरे नरक तक ही परमाधामी देव जाते हैं । अतएव उनके द्वारा पहुँचाई जाने वाली विविध वेदनाएँ भी तीसरे नरक तक ही होती हैं । उससे आगे चौथे और पाँचवें नरक के नारकी आपस में एक दूसरे को कष्ट देते हैं। जैसे नये कुत्ते के आने पर दूसरे कुत्ते उस पर टूट पड़ते हैं और दांतों से, पंजों से उसे त्रास पहुँचाते हैं, उसी प्रकार नरक में नारकी जीव एक दूसरे पर निरन्तर आक्रमण करते रहते हैं और घोर परिताप उत्पन्न करते रहते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव नरक में नहीं जाता । सम्यक्त्व होने से पहले किसी ने नरक की आयु का बंध कर लिया हो तो वह पहले नरक में उत्पन्न होता है । किन्तु नरक की वेदना भोगते-भोगते किसी जीव को वहीं सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है । ऐसे सम्यग्दृष्टि नारकी सभी-सातों नरकों में हो सकते हैं । जो नारकी सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे नरक के दुःखों को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल जान कर समभाव से उन्हें सहन करते रहते हैं । वे दूसरों को दुःख नहीं देते। किन्तु मिथ्यादृष्टि नारकी एक दूसरे को लातों और मुक्कों से मारते हैं तथा विक्रिया से विविध प्रकार के शस्त्र बनाकर परस्पर में प्रहार करते हैं । इस प्रकार का आघात-प्रत्याघात निरन्तर चलता रहता है । इसी प्रकार छठे और सातवें नरक के नारकी गोबर के कीड़े सरीखे वज्रमय मुख वाले, कुंथुवे का रूप बनाकर, आपस में एक दूसरे के शरीर के आर-पार निकल जाते हैं। सारे शरीर में चालनी के समान छेद करके महान् भयंकर परिताप उत्पन्न करते हैं। वे प्रतिक्षण आपस में इसी प्रकार की घोर-अतिधोर व्यथाएँ एक दूसरे को पहुँचाते रहते हैं। नारकी जीव अपने बचाव के लिए प्रयत्न करते हैं। किन्तु उनका वह प्रयत्न उन्हें दुःख से बचाने के बदले और अधिक दुःख का कारण बन जाता है। उनकी विक्रिया अनुकूल न होकर उन्हीं के प्रतिकूल होती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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