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________________ ८२४ ] * जैन-तत्व प्रकाश * मेरी इच्छा नहीं थी कि पांग शक्तिहीन, शिथिल और जर्जरित हो जाएँ ? यह शरीर नाना प्रकार के रोगों का घर बन जाय । फिर भी यही हुआ । मेरी इच्छा न होने पर भी यह मेरे शत्रु रोगों से मिल गया और इसने बुढ़ापे को स्वीकार कर लिया । अगर यह मेरा होता तो मेरे दुश्मनों से क्यों मिल जाता ? मुझे दुखी करने के लिए क्यों तैयार होता ? ऐसे स्वामीद्रोही शरीर को अपना मानना उचित नहीं है । अत्र मैं समझ गया - श्रव यह मेरा नहीं है। चाहे रहे चाहे जाय ! (७) हे भोले जीव ! इस शरीर को माता-पिता अपना पुत्र कहते हैं, भ्राता और भगिनी अपना भाई कहते हैं, काका और काकी अपना भतीजा कहते हैं, मामा और मामी अपना भानजा कहते हैं, पत्नी अपना पति कहती है, पुत्र-पुत्री अपना पिता कहते हैं, इत्यादि सब इसे अपना-अपना कहते हैं और तू इसे अपना कहता है । अब कह, यह शरीर वास्तव में किसका है ? परमार्थ दृष्टि से देखने पर जान पड़ता है कि यह किसी का नहीं है, क्योंकि कोई भी इसे रखने में समर्थ नहीं है । अतएव सब कुटुम्बियों और संबंधियों सेम का त्याग कर निश्चित समझ ले कि तू सच्चिदानन्द-स्वरूप है । तएव श्रव निज स्वभाव में रमण करना ही मुझे उचित है । (८) रे श्रात्मन् ! यह शरीर-सम्पदा इन्द्रजाल की माया है । कहा भी है: समान बाल यौवनसम्पदा परिगतः, क्षिप्रं क्षितौ लक्ष्यते । वृद्धत्वेन युवा जरापरिणतौ व्यक्तं समालोक्यते । सोऽपि क्वापि गतः कृतान्तवशतो न ज्ञायते सर्वथा, पश्यैतद्यदि कौतुकं किमपरैस्तैरिन्द्रजालैः सखे ! — वैराग्यशतक. हे मित्र ! यह शरीर काल के वशीभूत होकर इन्द्रजाल के तमाशे के समान, क्षण-क्षण में परिवर्तित होता जाता है। जरा इस ओर दृष्टि दे | बाल्यावस्था में यह शरीर सब को प्यारा लगता है— सब का खिलौना बन्म
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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