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________________ * अन्तिम शुद्धि * [८२५ 'रहता है, मगर बहुत दिनों तक यह हालत नहीं रहती। पुद्गलों का प्रचय होते-होते यह वृद्धावस्था में प्रवेश करता है और छटादार एवं मनोहर बन जाता है। मगर यह अवस्था भी थोड़े ही दिन ठहरती है । क्षण-क्षण में पलटते पलटते यह वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है। गलित-पलित होकर घृणा का पात्र बन जाता है । पहले जो लोग इसे प्यारा समझते थे, उन्हें ही यह खारा लगने लगता है। फिर इसकी और अधिक दुर्दशा होती है । मृत्यु इस पर हमला करती है और यह मुर्दा बन जाता है । तब वही प्रेमी स्वजन मोह-ममता त्याग कर इसे अग्नि में भस्म कर देते हैं । शरीर की और कुटुम्बियों की इस स्थिति को देखते हुए और जानते हुए भी शरीर और कुटुम्बी जनों के प्रति आसक्त होना कितने आश्चर्य और खेद की बात है ?... () जो जीता है वह मरता नहीं है और जो मरता है वह जीता नहीं है । अर्थात्-आत्मा अविनाशी है और शरीर विनाशशील है। इसलिए मृत्यु शरीर को अपना ग्रास बना सकती है, आत्मा को नहीं। शरीर तो प्रतिक्षण पलटता जा रहा है, क्षीण होता जा रहा है। किन्तु मैं (आत्मा) सदैव तीनों काल ज्यों का त्यों हूँ और रहूँगा । मृत्यु की मेरे पास तक पहुँच नहीं हुई और होगी भी नहीं। जिसने इस सचाई को भली-भाँति समझ लिया है, उसे मृत्यु का भय कदापि नहीं सता सकता। (१०) मैं आकाशवत् हूँ, इस कारण अग्नि में जलता नहीं, पानी में गलता नहीं, वायु से उड़ता नहीं, शस्त्रों से भिदता नहीं, हस्तादि से ग्रहण किया जा सकता नहीं। मैं कदापि नष्ट नहीं हो सकता । आकाश से मेरी विशेषता यह है कि आकाश अचेतन है मैं चेतन हूँ, आकाश जड़ है मैं चिन्मय हूँ । अतएव मुझे कभी किसी से भय नहीं हो सकता। (११) जैसे श्रीमान् के पुत्र के दोनों तरफ की जेबों में मेवा भरा रहता है और वह जिधर हाथ डालता है उधर ही उसे स्वादिष्ट पदार्थ मिलते हैं । इसी प्रकार मेरे भी दोनों हाथों में मेवा है अर्थात् जब तक जीता हूँ तब तक संयम पालता हूँ या श्रावक के व्रत पालता हूँ, स्वाध्याय, तप आदि करता हूँ और जब मर जाऊँगा तो स्वर्ग-मोक्ष के सुख का अधिकारी बनूंगा।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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