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________________ ® अन्तिम शुद्धि , [८२३ दिन तक मैंने ध्यान नहीं दिया। अब शरीर की यह विनाशशील रचना देख कर मुझे निश्चय हो गया है कि आपका कथन पूर्ण रूप से सत्य है। (३) जिस प्रकार मनुष्यों का एक जगह इकट्ठा हो जाना मेला कहलाता है और कालान्तर में उनके बिखर जाने पर शून्य अरण्य हो जाता है, इसी प्रकार अनेक मनुष्यों के मिल जाने पर कुटुम्ब का मेला लग जाता है और पुद्गलों के संयोग से शरीर का मेला बन जाता है । मगर चार दिन बाद ही वह बिखरने लगता है ! इसमें हर्ष या विषाद करना उचित नहीं है । जैसे मेले में शामिल होने वाले लोग बिखरते समय चिन्ता या शोक नहीं करते, उसी प्रकार कुटुम्ब या शरीर का मेला बिखरते समय मुझे भी शोक करना योग्य नहीं है। संयोग का फल वियोग है। चिन्ता करके भी कोई वियोग से बच नहीं सकता । ऐसी स्थिति में चिन्ता या शोक करके अपनी आत्मा को अशान्त और मलीन करने की क्या आवश्यकता है ? (४) इस जगत का न कोई कर्ता है, न कोई हर्ता है। सभी पदार्थ स्वभाव से ही मिलते और बिछुड़ते हैं। शरीर का संयोग भी स्वभाव से ही हुआ है और स्वभाव से ही मिटने वाला है। मैं संयोग बनाये रखना चाहूँ तो रह नहीं सकता और बिखेरना चाहूँ तो बिखर नहीं सकता। तो फिर इसके बिखरने की चिन्ता मैं क्यों करूँ ? जो होना होगा सो श्राप ही हो जायगा। (५) मैं अजर, अमर, अविनाशी, अमूर्ति सच्चिदानन्द हूँ और शरीर विनश्वर, मूर्तिक और जड़ रूप है । शरीर का नाश होने पर भी मेरे स्वभाव का कदापि नाश नहीं हो सकता । तब इस शरीर की चिन्ता मैं क्यों करूँ? (६) हे जिनेन्द्र ! मैं अविवेक के कारण इस शरीर को अपना मानता था । पर अब मुझे भास हुआ है कि वह मेरी भ्रान्ति थी-भूल थी । वास्तव में शरीर मेरा नहीं है । यह मेरी इच्छा के अनुसार चलता नहीं है। मैं कब चाहता था कि यह बूढ़ा हो जाय ? मैं ने कव इच्छा की थी कि सब अंगो.
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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