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________________ ८१०] ® जैन-तत्व प्रकाश 8 दुःखों से उद्विग्न होकर उन मुमुक्ष पुरुषों को सकाम मरण के स्वरूप को समझने की सहज ही अभिलाषा होती है। ___ जैसे शुरवीर धीर क्षत्रिय राजा पर कोई पराक्रमी राजा चढ़ाई करता है तो उसकी चढ़ाई का समाचार सुनते ही उस शूरवीर की नसों में खून दौड़ने लगता है, रोम-रोम में वीर रस व्याप्त हो जाता है । वह तत्काल अपनी सेना के साथ सुसज्जित होकर, राजकीय सुखों का परित्याग करके, शीत-ताप, क्षधा-तृषा आदि के कष्टों की तथा शस्त्रों के प्रहार संबंधी दुःखों की तनिक भी चिन्ता न करता हुआ, यहाँ तक कि उस दुःख को भी सुख का साधन समझता हुआ, अपनी वीरता कुशलता और प्रबलता से शत्र की सेना को पराजित करके विजयी बनता है। विजय प्राप्त करके विना किसी विघ्नबाधा के राज्य भोगता है । इसी प्रकार महात्मा पुरुष, काल रूपी शत्रु को रोग आदि रूप दूतों के द्वारा निकट पाया जान कर तत्काल सावधान हो जाते हैं। वे शारीरिक सुखों का सर्वथा परित्याग करके, क्षुधा-तृषा आदि के दुःखों को दुःख न मानते हुए, बल्कि सुख का साधन समझते हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूपी चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित होकर सकाम मरण रूप संग्राम के द्वारा काल रूप दुर्दान्त शत्रु को पराजित कर देते हैं । फल स्वरूप वे अनन्त, अक्षय, आत्मिक सुख की प्राप्ति रूप मोक्ष के महाराज्य को प्राप्त करके सदा के लिए निष्कंटक बन जाते हैं। जिसने जन्म लिया है, उसे एक न एक दिन मरना तो होगा ही। मृत्यु से बचने का जगत् में कोई उपाय नहीं है । बड़े-बड़े प्रतापशाली, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि समर्थ पुरुष इस भूतल पर आये, मगर उनमें से एक भी मृत्यु से नहीं बचा ! वास्तव में मृत्यु से बचना सम्भव ही नहीं है । इस प्रकार जब मृत्यु निश्चित है तो उसे बिगाड़ कर आत्मा का अहित क्यों करना चाहिए ? रोते, कराहते और हाय-हाय करते क्यों मरना चाहिए ? ऐसा उपाय क्यों नहीं करना चाहिए जिससे कि एक ही बार मर कर सदा के लिए अमरता प्राप्त हो जाए ? वह उपाय कितना ही विकट क्यों न हो, फिर भी पुनः पुनः मृत्यु के घोर कष्ट भोगने की अपेक्षा तो वह उपाय अल्प
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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