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________________ ॐ अन्तिम शुद्धि [८११ कष्टकर ही है। अनन्त जन्म-मरण के दुःखों की तुलना में समाधिमरण का कष्ट किसी गिनती में ही नहीं है। ऐसा विचार कर शूरवीर महात्मा सकाममरण करते हैं और सदा के लिए मृत्यु के दुःखों से छूट जाते हैं। सकाममरण के पाँच गुणनिष्पन्न नाम हैं-(१) मुमुक्षु जीवों की कामना जन्म-जरा-मत्यु से बचने की होती है। इस कामना की सिद्धि होने के कारण उसे 'सकाम-मरण' कहते हैं । (२) सब प्रकार की आधि, व्याधि, उपाधि से चित्त जब निवृत्त होता है और शान्ति के साथ धर्मध्यान में लगा रहता है तभी सकाममरण होता है, अतः उसका दूसरा नाम 'समाधिमरण' है। (३) मृत्यु के समय तीन या चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, अतएव उसे 'अनशन' भी कहते हैं । (४) अन्तिम वार बिछौने में शयन करने के कारण इसे 'संथारा लेना' भी कहते हैं । (५) सकाममृत्यु के समय अपने जीवन भर के दोषों का सम्यक् प्रकार से निरीक्षण किया जाता है, उनकी आलोचना, निन्दा और गर्दा की जाती है, अतएव इसे 'सन्लेखना' भी कहते हैं । अथवा माया, मिथ्यात्व और निदान रूप तीनों शल्यों की आलोचना आदि करने के कारण इसे सल्लेखना कहते हैं । सागारी संथारा मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं है । कभी-कभी वह अचानक ही हमला कर देती है और जीवन-धन का अपहरण कर लेती है। कई लोग सदा की भाँति सोते हैं और सोते-सोते ही मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं । ऐसी हालत में धर्मशील पुरुषों को सदैव सावधान रहना चाहिए । कदाचित् अचानक मृत्यु आ जाय तो आत्मा कोरा परभव में चला जाएगा, ऐसा भय सदैव रख कर रात्रि में सोते समय इत्वर (स्वल्प) काल के लिए अर्थात् सोकर उठने तक के समय के लिए और कदाचित् सोते-सोते ही मृत्यु आ जाय तो
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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