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________________ ® अन्तिम शुद्धि [८०६ प्यास, सर्दी, गर्मी श्रादि के दुःख भविष्य के सुख की कल्पना. करके सहन करना बुद्धिमानी नहीं है। जो सुख प्राप्त हैं इन्हीं को अधिक से अधिक भोग लेना अच्छा है। इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर वे हिंसा करते हुए, मिथ्या भाषण करते, चोरी करते हुए, व्यभिचार का सेवन करते हुए और सभी प्रकार के पापों का आचरण करते हुए संकुचित नहीं होते हैं । वे मदिरा का सेवन करने लगते हैं, मांसभक्षण से परहेज नहीं करते, विषयभोग में अत्यन्त आसक्त होकर वेश्यागमन जैसे घोर दुष्कर्म करने से भी नहीं चूकते । वे धर्म के नाम से चिढ़ते हैं, पाप के कामों में हर्ष के साथ प्रवृत्ति करते हैं, सन्तों की संगति से दूर रहते हैं, चोरों-जारों की संगति में मज़ा मानते हैं। इस प्रकार जीवन पर्यन्त पापों का आचरण करके जब मृत्यु के समीप आते हैं तब उन्हें अतिसार, कुष्ठ, जलोदर, भगंदर, शूल, क्षय, आदि भयंकर रोग आ घेरते हैं और वे त्रास पाते हैं, व्याकुल होते हैं और रोते हैं कि'हाय रे ! अब मुझे महान् कष्ट से संचित किये हुए भोगोपभोग के साधनों को त्याग कर चला जाना पड़ेगा ! इस तरह वे मृत्यु की इच्छा के विना ही रोते-विलाप करते हुए मृत्यु के मुंह में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार का मरण बालमरण कहलाता है। बालमरण से मरने वाला प्राणी इस अपार संसार में अनन्त जन्म-मरण को प्राप्त होता है। जब तक इस प्रकार के मरण से मरता रहता है तब तक वह संसार के दुखों से छुटकारा नहीं पाता । वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। इस जीव ने इस बालमरण के प्रभाव से अनन्त काल नाना योनियों में जन्म-मरण करके विता दिया है। जब कभी प्राणी सब कर्मों की स्थिति को खपा कर एक कोटाकोटी सागरोपम के अन्दर की स्थिति को प्राप्त करता है, तब कहीं उसके चित्त में धर्म की धाराधना करने की भावना उत्पन्न होती है। सौभाग्य का उदय होने पर उसे सद्गुरु की संगति प्राप्त होती है तो वह संसार के वास्तविक स्वरूप को समझता है। भवभ्रमण के दुःखों को जानता है । तत्पश्चात् उन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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