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________________ ८०८] ® जैन-तत्व प्रकाश (१५) इंगितमृत्यु- संथारा ग्रहण करने के पश्चात् दूसरे से वैयाकृत्य न कराते हुए शरीर को त्यागना । (१६) पादोपगमनमृत्यु-आहार और शरीर का यावज्जीवन त्याग करके स्वेच्छापूर्वक हलन-चलन आदि क्रियाओं का भी त्याग करके समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग करना। (१७) केवलिमरण-केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् मोक्ष में जाते समय अन्तिम रूप से शरीर का छूटना। मृत्यु के यह सत्तरह प्रकार अष्टपाहुड ग्रन्थ के पाँचवें भावपाहुड में बतलाये गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सामान्य रूप से मत्यु के दो भेद बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं: बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे । पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सई भवे ॥ -श्रीउत्तराध्ययन, अ० ५, गा० ४ अर्थात-अज्ञानी जीव अकाममत्यु से मरते हैं। उन्हें पुनः पुनः मरना पड़ता है। किन्तु पण्डित अर्थात् ज्ञानी पुरुषों का सकाममरण होता है, और वह उत्कृष्ट एक बार ही होता है, उन्हें फिर मरना नहीं पड़तावे अमर-मुक्त हो जाते हैं। आत्महित के अभिलाषी पुरुषों को दोनों प्रकार की मृत्यु का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है । वह निम्नलिखित है: जो जीव परलोक में आस्था नहीं रखते, वे कहते हैं-कौन जाने परलोक है या नहीं ? हमारे इसने सगे-सम्बन्धी, कुटुम्बी और स्नेही लोग मर गये, मगर किसी ने कुछ भी समाचार-सन्देश नहीं भेजा ! अतएव परलोक के सुखों की मिथ्या आशा से इस लोक में-इस भव में प्राप्त हुए कामभोगों का त्याग कर देना उचित नहीं है। इस जीवन के सुख छोड़ कर भूख,
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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