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________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [ ७७१ (५) अवलम्बनदोष-भीत, स्तम्भ, वस्त्रों की गांठ आदि का सहारा लेकर बैठना । इससे उनके आश्रित जीवों का घात हो जाता है और निद्रा श्रादि प्रमाद की उत्पत्ति होती है। कदाचित् वृद्धत्व, रोग या तपस्या आदि के कारण अवलम्बन लिये विना न बैठा जाय जो जिसका अवलम्बम ले, उस भींत आदि को देखे-पूंजे विना अबलम्बन न ले । (६) आकुंचन-प्रसारणदोष-बैठे-बैठे शरीर को बार-बार सिकोड़ना और फैलाना । इससे भी जीवहिंसा होने की सम्भावना रहती है । (७) आलस्य दोष-अंग मरोड़ना, जंभाइयाँ लेना, शरीर को इधरउधर पटकना, आदि। (८) मोड़नदोष-हाथ-पैर की उंगलियों का तथा शरीर के अन्य भाग का कड़का निकालना। (६) मलदोष-शरीर का मैल उतारना, पूँजे विना शरीर को खुजलाना । (१०) विमासनदोष-हथेली पर सिर रख कर, जमीन की तरफ दृष्टि रख कर, गृहकार्य का, देन-लेन का तथा ऐसे ही अन्य कार्यों का विचार करना। (११) निद्रादोष-सामायिक में नींद लेना। (१२) बेयावच्चदोष–सामायिक में हाथ-पैर आदि की मालिश करना। यह काय के बारह दोष सामायिक में नहीं लगाने चाहिए । मन के १. वचन के १० और काय के १२, सब मिल कर सामायिक सम्बन्धी ३२ दोषों से बचने पर शुद्ध सामायिक होती है । यह तीन अतिचार हुए । (४) सामाइस्स सइ प्रकरणयाए-निद्रा, मूळ, चित्तभ्रम, आदि किसी कारण से सामायिक के काल में संशय उत्पन्न हो जाय कि सामायिक का काल पूर्ण हुआ है या नहीं ? तो जब तक संशय दूर न हो जाय और पूर्ण
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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