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________________ ७७२ ) * जैन-तत्त्व प्रकाश काल का निर्णय न हो जाय, उससे पहले ही सामायिक पार ले तो अति चार लगता है । (५) सामाइयस्स श्रणवद्वियस्स करणयाए - अर्थात् सामायिक का काल पूर्ण होने से पहले सामायिक पारना, या सामायिक का अवसर प्राप्त होने पर भी सामायिक न करना और विधिपूर्वक शुद्ध सामायिक न करना । प्रश्न - इस प्रकार की सब अतिचारों और दोषों से रहित सामायिक इस काल में होना कठिन है । तो सदोष सामायिक करने से तो न करना ही है । उत्तर - निर्दोष सामायिक करना कठिन भले हो, अशक्य नहीं है । संसार-व्यवहार चलाने के लिए, अल्पकालीन जीवन को सुखमय बनाने के लिए लोग बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ झेलते हैं तो आत्मा के शाश्वत कल्याण के लिए दो घड़ी भी सावधान नहीं रह सकते ? जिसे आत्मा का भान हो गया है, जिसने हेय और उपादेय का विवेक प्राप्त कर लिया है और जो सच्चे हृदय से सामायिक करना चाहता है, उसके लिए निर्दोष सामायिक करना कठिन नहीं है । इसके अतिरिक्त जैसे खाने को पकवान न मिले तो कोई भूखा नहीं रहता, रत्नकंबल ओढ़ने को न मिले तो नंगा नहीं रहता, इसी प्रकार कदाचित् पूर्ण निर्दोष सामायिक न हो सके तो सामायिक करना ही छोड़ देना उचित नहीं है । पकवान खाने की इच्छा रखने वाला, जब तक पकवान न मिले, रोटी से ही काम चलाता है और पकवान प्राप्ति के लिए उद्योगशील रहता है । ऐसा करने से उसे कभी पकवान भी मिल जाता है। इसी प्रकार कालदोष से, संहनन की हीनता से तथा प्रमाद आदि कारणों से कदाचित् शुद्ध सामायिक न बन सके तो जैसी बने वैसी करे; लगने वाले दोषों के लिए पश्चात्ताप करे और शुद्ध सामायिक करने का उद्योग करता रहे। ऐसा करने से. किसी समय शुद्ध सामायिक भी होने लगेगी ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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