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________________ * जैन-तत्व प्रकाश (१०) मम्मणदोष - गुनगुनाते हुए इस प्रकार बोलना जिससे सुनने वाला पूरी तरह न समझ सके । ७७० ] वचन के इन दस दोषों में से किसी भी दोष का सेवन करने से सामायिक में दोष लगता है, आत्मा मलीन होती है, अपयश होता है और लाभ कुछ भी नहीं होता । ऐसा समझ कर इन दोषों से बचना चाहिए । (३) कायदुष्प्रणिधान – अर्थात् शरीर को अशुभ व्यापार में प्रवृत्त करना । जहाँ शरीर की अधिक चपलता होती है वहाँ प्रायः कुछ न कुछ दोष लगे विना नहीं रहता । अतएव सामायिक में बिना कारण हलन चलन करना योग्य नहीं है । काय के बारह दोषों से बचना चाहिए। यथा (१) अयोग्यासन दोष - पैर पर पैर चढ़ा कर बैठने से अभिमान प्रकट होता है और वृद्धों का अविनय होता है, अतएव अयोग्य आसन से बैठना दोष है । (२) चलासनदोष – डगमगाते हुए सिला, पाट आदि पर बैठने से उनके नीचे स्थित जन्तु कुचल जाते हैं, तथा जिस स्थान पर बैठने से बारबार उठना पड़े, ऐसे आसन और स्थान पर बैठना उचित नहीं है। स्वभाव की चपलता से बार-बार आसन बदलना, उठना-बैठना भी जीवघात का कारण हो जाता है, यह भी चलासन दोष है । इससे भी बचना चाहिए । (३) चलदृष्टिदोष -- दृष्टि की चपलता से बार-बार इधर-उधर अवलो - कन करना, स्त्री-पुरुष के अंगोपांगों का निरीक्षण करना । ऐसा करने से मन में विकार उत्पन्न होता है, लोगों में निन्दा होती है और अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । (४) सावद्यक्रियादोष — हिसाब - नामालेखा लिखना, कपड़ा सीना, कसीदा निकालना, अचित्त पानी से लींपना या बच्चों को स्नान कराना, इत्यादि कामों में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती है, ऐसा समझ कर सामायिक में यह सब कार्य करना ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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