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________________ ७६] ® जैन-तत्त्व प्रकाश जो चन्द्रमाओं से भी विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयंभूरमण जैसे महासमुद्र के समान गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें। इस प्रकार का मूल पाठ उच्चारण करने के पश्चात् यदि धर्मगुरु मौजूद हों तो उनके समक्ष, न मौजूद हों तो पूर्व तथा उत्तर दिशा की तरफ मुख रखकर खड़ा हो ओर हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहे: (प्रतिज्ञासूत्र) करेमि भंते ! सामाइयं, सावज जोगं पञ्चक्खामि । जावनियमं पज्जुवासामि । दुविहं तिविहेणंमणेण, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि। अर्थात्-हे भगवन् ! मैं सामायिक ग्रहण करता हूँ, पापकारी क्रियाओं का परित्याग करता हूँ। जब तक मैं दो घड़ी के नियम की उपासना करूँ, तब तक दो करण तीन योग सें-मन वचन काय से पापकार्य न स्वयं करूँगा, न दुसरे से कराऊँगा । (जो पापकर्म पहले हो गये हैं उनका) हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, अपनी साक्षी से निन्दा करता हूँ,* आपकी साक्षी से गर्दा करता हूँ और अपनी आत्मा को पापमय व्यापार से अलग करता हूँ। इस पाठ का उच्चारण करके सामायिकवत को ग्रहण करे । बांया घुटना ऊचा रखकर बैठे, फिर दोनों हाथ जोड़ कर पहले सिद्ध भगवान् को * किसी को अनजान में ठोकर लग जाने पर उससे क्षमा मांग ले तो दोष नहीं रहता, इसी तरह प्रतिक्रमण करते, अनजान में हुए दोषों का पश्चात्ताप करने से वे शिथिल पड़ जाते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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