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________________ ॐ सागारधर्म-श्रावकाचार ® [७६५ एवं मए अभिथुआ, विहूयरयमला पहीणजरमरणा। . चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय-वंदिय-महिया, जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्ग-वोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं किंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, श्राइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगम्भीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ अर्थात् समस्त लोक में धर्म का उद्योत करने वाले, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले, राग-द्वेष को जीतने वाले, काम-क्रोध आदि अन्तरंग शत्रुओं को नष्ट . करने वाले, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थङ्करों का मैं कीर्तन करूंगा। श्रीऋषभदेव और श्रीअजितनाथ को वन्दना करता हूँ । सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्य और चन्द्रप्रभ जिन को भी नमस्कार करता हूँ। सुविधिनाथ (पुष्पदन्त), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, बिमलनाथ, राग-द्वेष विजेता अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शान्तिनाथ को वन्दना करता हूँ। श्री कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत और नमिनाथ को मैं वन्दना करता हूँ। तथा भगवान् अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी को भी मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी मैंने वन्दना की है, जो कर्म रूप रज एवं मैल को नष्ट कर चुके हैं, जो जरा और मरण से रहित हैं, वे चौबीसों जिनवर तीर्थङ्कर मुझ पर प्रसन्न हों। जिनकी इन्द्रादि देवों और मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, पूजा की है, जो संसार में सब से उत्तम हैं, जिन्होंने सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे तीर्थकर भगवान मुझे आरोग्य (सिद्धि) तथा बोधि (सम्यग्दर्शनादि रत्नअय) का पूर्ण लाभ और उत्तम समाधि प्रदान करें।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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