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________________ ७६४] ® जैन-तत्व प्रकाश ® उच्छवास, निश्वास, खांसी, छींक, जंभाई, डकार, अपानवायु का संचार, चक्कर, पित्त के विकार से होने वाली मूर्छा, तथा सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कफ का निकलना, सूक्ष्म रूप से दृष्टि का घूमना,* इत्यादि आगारों के कारण मेरा कायोत्सर्ग भंग न हो, विराधित न हो । (क्योंकि मैं पहले से ही इनकी छूट रख लेता हूँ।) मैं जब तक अरिहंत भगवान् को नमस्कार न कर लूँ, तब तक एक ही जगह स्थिर रह कर, मौन रहकर, धर्मध्यान में चित्त एकाग्र करके अपने शरीर को पाप कार्यों से निवृत्त करता हूँ। इस प्रकार पाठों का उच्चारण करके, तत्पश्चात् दोनों हाथों को सीधे लटकते रख कर, पैर के अंगूठे पर दृष्टि जमा कर, स्थिर होकर कायोत्सर्ग करे । 'नमो अरिहंताणं' कह कर कायोत्सर्ग को समाप्त करे। कायोत्सर्ग करते समय 'इच्छाकारण' के अर्थ का चिन्तन करे किन्तु 'मिच्छा मि दुक्कर्ड' वाक्य जो इच्छाकारेण के पाठ में आता है उसे छोड़ दे। कायोत्सर्ग को समाप्त करने के पश्चात् निम्नलिखित पाठ बोले: (चतुर्विंशतिस्तव का पाठ) लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥१॥ उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउभप्पहं सुपाहं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल-सिज्जंस-वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च मल्लि, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिटनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ * इत्यादि शब्द से जीवरक्षा के निमित्त क्रिया करने की तथा भाग या राजा का उपद्रव होने पर व्रतरक्षा के लिए बीच में कायोत्सर्ग पार ले तो दोष नहीं है, ऐसा समझना चाहिए।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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