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________________ * सागारघमे-श्रावकाचार * [ ७६७ और फिर अरिहंत भगवान् को, इस प्रकार दो बार 'नमोत्थुं' का पाठ उच्चारण करे | (नमोत्थु का पाठ इस ग्रंथ में पहले दिया जा चुका है । वहाँ देख लेना चाहिए ।) सामायिक व्रत के अतिचार (१) मन: दुष्प्रणिधान - अर्थात् मन में खराब विचार करना। सन बन्दर की तरह चपल और जंगली अश्व के ममान अड़ियल एवं सन्मार्ग को छोड़ कर उन्मार्गगामी होता है । सामायिकधारी श्रावक को चाहिए कि वह ज्ञान रूप लगाम लगाकर मनःरूप घोड़े को काबू में रक्खे और सन्मार्ग में प्रवृत्त करे । सामायिक में मन के दस दोष कहे हैं- (१) अविवेकदोष – सामाधिकक्रिया के फल से अनभिज्ञ लोग, दूसरों की देखादेखी मुँह बाँधकर सामायिक करने बैठ जाते हैं, परन्तु मन में ऐसी कल्पना करते हैं कि इस प्रकार बैठने से क्या लाभ हो सकता है ? आदि । (२) यशोवाञ्चादोष- गरा की इच्छा करना; जैसे- मैं सामायिक करूँगा तो मुझे लोग धर्मात्मा जानकर धन्य धन्य कहेगे ! मेरी कीर्ति होगी । (३) धनेच्छादोष-फलां आदमी सामायिक करता है तो उसे व्यापार में बहुत लाभ होता है । उसी प्रकार मैं भी 'करूँगा समाई तो होगी कमाई ' इत्यादि विचार से सामायिक करना । (४) गर्वदोष - श्रभिमान करना । जैसे—मेरे समान निर्दोष और त्रिकाल सामायिक करने वाला कौन है ! मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, आदि । - (५) भयदोष – डर से सामायिक करना । जैसे - मेरे बाप-दादा बहुत सायिक करते थे । मैं सामायिक नहीं करूँगा तो लोग मेरी निन्दा करेंगे । इस प्रकार निन्दा के भय से अथवा आजीविका आदि के भय से सामायिक करना । या सर्प आदि को देखकर भय से व्याकुल होना ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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