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________________ ७४६ ] *जैन-तत्व प्रकाश * कन्द (१८) थेगकन्द (१६) हरी मोथ ( २० ) लोग वृक्ष की छाल (२१) खिलूड़ाकन्द (२२) अमर बेल (२३) मूली (२४) फोड़ा (२५) विरूड़ा (धान्य के अंकुर), (२६) ढग बथुआ (२७) सुववाल (कांदा-प्याज), (२८) पालका शाक (२६) जिसमें गुठली न बँधी हो ऐसी कच्ची इमली (३०) आलू (३१) पिण्डालु और (३२) जिसके तोड़ने पर दूध निकले तथा जिसकी सन्धि टूटने के बाद उष्ण प्रतीत हो, नस- सन्धि-गांठ प्रत्यक्ष दीखती हो, जिसमें गुठली न बँधी हो ऐसा कोई भी फल और मोठ, चना, मूँद को भिगाने से निकले हुए अंकुर, यह सब अनन्तकाय हैं । यह श्रनन्तानन्त जीवों का पिण्ड होने से अभक्ष्य हैं । (१७) अथाना - श्रम, नीबू, मिर्च आदि के अचार में बहुत दिनों तक रहने के कारण फूलन और त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । वह सड़ जाता है । अतएव ऐसा थाना (अचार) भी खाने योग्य नहीं है । (१८) घोल बड़े - कच्चे दही को पानी में घोलकर उसमें बड़े ( पकौड़े ) डाले जाते हैं । वे कुछ समय बाद खदबदा जाते हैं। वे भी अभदय I (१६) बैंगन - बैंगन को प्रकृति भी खराब होती है और उसमें बीज बहुत अधिक होते हैं, अतः श्रभक्ष्य है । (२०) अनजाने फल - जिस फल का नाम और गुण मालूम न हो, उसका भक्षण करना उचित नहीं है। उससे अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति की, यहाँ तक की मृत्यु की भी सम्भावना रहती है। (२१) तुच्छफल - जिसमें खाने योग्य अंश कम हो और फैकने योग्य अंश अधिक हो, वह त्याज्य है । जैसे— ईख (सांठा), सीताफल, बेर तथा जामुन । (२२) चलितरस - जो वस्तु बिगड़ कर खट्टी से मीठी और मीठी से खट्टी हो गई हो, दुर्गन्ध आने लगी हो वह त्याज्य है । ऐसी वस्तु से रोगोत्पत्ति तथा श्रसंख्यात जीवों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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